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६२ | सोना और सुगन्ध मुझे कुछ भी नहीं करने देती। जब तक पेट में कुछ पड़ न जाए-जप-तप कुछ नहीं होता। नगर का एक ग्वाला जब अपनी गायों को पेड़ के नीचे बैठाकर दोपहर का भोजन करता था तो कहा करता था-'भूखे भजन न होय गुपाला, ले लो अपनी कण्ठी माला ।' क्या उसी का कहना ठीक था ? बचपन में मैं सोचा करता था-खाना खाने के लिए ग्वाले ने एक तुकबन्दी बना ली है। बिना अनशन के सिद्धि कैसे मिलेगी ?'
एक दिन मुनि राजकुमार ने गुरु से पूछ ही लिया
"गुरुदेव ! न जाने किन कर्मों का उदय हुआ है कि मैं भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता ? प्रभो ! मुझे सिद्धि कैसे मिलेगी ? बिना व्रत-उपवास-अनशन के मैं कैसे साधना कर पाऊँगा ?"
नवदीक्षित राजकुमार के कथन पर मृदु मुस्कान के साथ गुरु ने समझाया
"वत्स ! चिन्ता मत करो। तुम भाव-तपस्वी हो, कर्म-तपस्वी नहीं हो तो क्या ? अनशन-व्रत के अलावा भी तप के अनेक रूप हैं। तुम उन्हीं की साधना करो। क्षमा, सन्तोष, स्वाध्याय, ध्यान आदि तप के इन रूपों में यदि तुम एक क्षमा की ही आराधना करो तो सिद्धि तुम्हारे चरण चूमेगी।" - शिष्य आश्वस्त हो गया। अब संशयहीन होकर
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