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भाव तपस्वी : कूरगडुक | ६१ शासन करने में ही है ?... अभी कल को ही तो बात है, जब सिरदर्द से मैं परेशान हो गया था ? पिताजी मनौतियां मना रहे थे...."मेरे बेटे को कुछ न हो मैं अब बूढ़ा हो चला हूँ। मेरे बाद शासन कौन संभालेगा?' पर क्या मैं दर्द से बच गया ? मौत का क्या भरोसा कब आ जाए""नहींनहीं-मैं राजमुकुट धारण नहीं करूंगा।' सोचते-सोचते राजकुमार का मन वैराग्य से भर गया । उसका भाग्य प्रबल था कि विशालानगरी के राजोद्यान में एक आचार्य अपने शिष्यों-सहित चातुर्मास बिता रहे थे। प्रतिबोधित राजकुमार शीघ्र ही गुरु के पास पहुँचा और हर्षोल्लास के साथ संयम ग्रहण कर लिया।
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विशालानगरी का राजकुमार सब साधुओं के साथ संयमित जीवन व्यतीत कर रहा है। राजसी सुखों का अभाव अब उसे नहीं सताता। भोजन के स्वाद पर भी उसने विजय पा ली है। भोजन में नमक हो या न हो, रूखा-सूखा कैसा ही हो-बड़े प्रसन्न मन से वह भूख मिटा लेता है, पर भोजन बिना वह एक दिन भी नहीं रह सकता । एक दिन तो अलग-घण्टे-दो-घण्टे का विलम्ब भी उसे अखर जाता है । यह उसकी मजबूरी है, विवशता है, पर करे क्या ? सोचता है-'हमारे संघ में चार-चार माम तक निराहार रहने वाले साधु भी हैं । अष्टमी, चतुर्दशी का व्रत तो सभी कर लेते हैं, पर मेरी भूख तो
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