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सच्चा यज्ञ | ५७
प्यास से सुखकर काँटा हो गया है, अब वह अधिक भूख को सहन करने में समर्थ नहीं है, अत: तुम अपना हिस्सा खाकर अपनी भूख शान्त करो, अतिथि देव के लिए मैं अन्य कोई प्रबन्ध करने का सोचूगा।
पुत्रवधू-पूज्यवर ! अतिथि को खिलाने में जो आपको अपूर्व आनन्द आयेगा, उस आनन्द से आप मुझे वंचित न करें।
ब्राह्मण ने पुत्रवधू के प्रेम भरे आग्रह से उसका हिस्सा भी अतिथि को दे दिया । उच्छवृत्तिधारी ब्राह्मण के परिवार की अपूर्व त्यागवृत्ति को देखकर अतिथि गद्गद हो गया । उसके हृत्तंत्री के तार झनझना उठे--हे धर्मात्मन् ! तुम्हारे न्यायोपार्जित दान से मैं बहुत हो प्रसन्न हूँ। तुम्हारा धैर्य अपूर्व है। तुमने सेर भर सत्तू देकर जितना पुण्य अर्जित किया है, उस पुण्य का शतांशवाँ हिस्सा भी राजसूय यज्ञ और अश्वमेध यज्ञ करके भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। उस समय मैं वहाँ पहुँच गया और उस अतिथि के झूठन में लोटने से तथा उन अन्न कणों को खाने से मेरा आधा शरीर सोने का हो गया। शेष आधे शरीर को स्वर्ण मय बनाने के लिए मैं अनेक तपोवनों में, यज्ञशालाओं में गया पर मेरी मनोकामना पूर्ण न हई। जब मैंने धर्मराज के द्वारा यज्ञ को वात सुनी तो अत्यधिक प्रसन्नता हुई, किन्तु यहाँ आकर के भी मुझे निराशा ही हुई । मेरी अभिलाषा पूर्ण न हो सकी, अतः मैंने कहा कि इस अश्वमेध
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