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५.६ | सोना और सुगन्ध
का न्याय है ? अतः आप बिना संकोच के मेरा हिस्सा अतिथि देव को दे दीजिए ।
ब्राह्मण पुत्र ! मैं तुम्हें भूख से आकुल व्याकुल कैसे देख सकता हूँ? मैंने तो दीर्घकाल तक तपस्या कर रखी है, पर तू तो फूल की तरह कोमल है । तू भूख को सहन नहीं कर सकता अंतः पिता होने के नाते मैं तेरा हिस्सा अतिथि को किस प्रकार दे सकता हूँ ।
पुत्र -- पूज्यवर ! पुत्र होने के नाते मैं भी आपका ही अंश हूँ, इस सत्त, पर मेरा नहीं आपका ही अधिकार है, अतः आप सहर्ष इसे दे दीजिए ।
ब्राह्मण ने पुत्र के अत्यधिक आग्रह से पुत्र का हिस्सा भी उस अतिथि को दे दिया । पुत्र के हिस्से को खाकर भी अतिथि की भूख शान्तं न हुई । वह और भी भोजन माँगने लगा । ब्राह्मण पहले से भी अधिक चिन्तित हो गया। पुत्रवधू ने जब यह स्थिति देखी तो उसने नम्र निवेदन करते हुए कहा - पूज्यप्रवर ! जब आप सभी ने अपनाअपना हिस्सा अतिथि देव को दे दिया है, तो मुझे भी खाने का क्या अधिकार है ? आपश्री मेरा हिस्सा भी अतिथि को दे दीजिए । अतिथि को सन्तुष्ट करना जैसे आप सभी का कर्तव्य था वैसा मेरा भी कर्तव्य है ।
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ब्राह्मण – पुत्री ! तुम्हारा शरीर पहले से ही भूख
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