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५४ | सोना और सुगन्ध में सायंकाल निराश होकर घर लौट आता। किन्तु उसका उत्साह कभी भी ठण्डा नहीं हुआ ।
चिरकाल के पश्चात उस ब्राह्मण को कहीं से एक सेर जौ प्राप्त हुए। सारा परिवार जौ को देखकर अत्यन्त आह्लादित हुआ। पुत्रवधू ने उस जौ को पीस कर उसका सत्तू बनाया, और उसके चार विभाग कर दिन के छठे भाग में वे चारों खाने के लिए बैठे । उसी समय एक भुखा अतिथि उस ब्राह्मण के द्वार पर आकर खड़ा हुआ। भूख के कारण उसका शरीर जर्जरित हो रहा था, पेट की अन्तड़ियाँ सूख गई थीं, और कमर झुक गई थी। अतिथि को द्वार पर खड़ा देखकर सभी उठे और उसका योग्य स्वागत कर उचित आसन पर बिठाया । उस अतिथि ने अपना संक्षिप्त परिचय देकर कहा कि मैं भूख से छटपटा रहा हूँ, यदि तुम मुझे इस समय भोजन दे सकोगे तो तुम्हारा कल्याण होगा।
उस उच्छवृत्तिधारी ब्राह्मण ने कहा-अतिथि देव ! मैंने अपने नियम के अनुसार यह सत्तू तैयार किया है, इसे आप ग्रहण करने का अनुग्रह करें। और उस ब्राह्मण ने अपना हिस्सा अतिथि के सामने रख दिया। अतिथि ने चट से उसे खा लिया, पर उसकी भूख न मिटी । उसकी भूखी आँखें इधर-उधर निहारने लगों। अतिथि को इधरउधर निहारते देखकर ब्राह्मण चिन्तित हो गया, किन्तु
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