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समदृष्टि महावीर
श्रमण महावीर समभाव धारण किए हुए विचर रहे थे। उनके लिए सुख और दुःख समान ही थे। चाहे कोई उनकी सेवा करे या कष्ट दे; उन्हें न किसी से राग था, न द्वेष । सम्पूर्ण मुक्ति के लक्ष्य को अपनी दृष्टि में स्थिर कर वे अपनी साधना में निमग्न रहते थे।
एक बार वे कुम्मारग्राम से कुछ दूर एकान्त वन में ध्यानस्थ खड़े थे। सन्ध्या की वेला थी। उस समय एक गोपाल उधर आ निकला। अपने बैलों को वह चरा रहा था। उसी समय उसे कुछ काम याद आ गया । महावीर को खड़ा देख उसने कहा... "अरे श्रमण, मेरे बैलों को जरा देखते रहना । तुम्हारे भरोसे छोड़े जाता है। मैं अभी लौटकर आता है।" । महावीर तो अपनी समाधि में मग्न थे और बैल बैल ही थे। चरते-चरते जंगल में कहीं के कहीं निकल गए।
गोपाल जब लौटकर आया तब उसने देखा कि उसके बैल गायब हैं। इधर-उधर हूँढा, किन्तु वे मिले नहीं; कहीं
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