________________
वह विषधर | ४६ जाना--मैं भिक्षु था । क्रोध किया था शिष्य पर, उसका यह परिणाम है।
और उसका जीवन बदल गया। क्रोध, प्रतिशोध और क्षोभ के स्थान पर उसने क्षमा और शान्ति को अपना धर्म बना लिया।
प्रभु अपने मार्ग पर आगे बढ़ गए-अन्य भटके प्राणियों को बोध-प्रतिबोध देने । __ अब चण्डकौशिक किसी को कुछ न कहता । नन्हे-नन्हे; प्राणी उसके आस-पास खेलते-कूदते रहते । वह अपने ध्यान में मग्न पड़ा रहता।
लोगों ने पहिले उसे बहुत सताया भो; किन्तु उसने सब कुछ शान्ति से, क्षमाभाव से सहन किया। लोगों के लिए यह एक महान् आश्चर्य था। - फिर लोग उसकी पूजा करने लगे। दूध और घृत लालाकर उसके पास रखने लगे। उनकी गन्ध से आकर्षित होकर असंख्य चींटियाँ आने लगी और धीरे-धीरे चण्डकौशिक की देह को ही खाने लगीं। उसे भयंकर वेदना होती, किन्तु उसके जीवन में क्षमाभाव और समभाव आ विराजा था और वह विषधर से देवता बन गया था। वह किसी से कुछ न कहता।
-नन्दी०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org