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________________ ४८ | सोना और सुगन्ध निराला ही था। उसके मन में न भय था, न क्रोध था, न द्वेष था, न कटुता थी । वह तो प्रेम और करुणा से ही बना हो, ऐसा दीखता था। चण्डकौशिक विस्मय से प्रभु के आनन को निहारता ही रह गया। सोचता ही रह गया-'यह क्या हो रहा है ? मेरी सारी शक्ति कहाँ चली गई ? मेरे विष को क्या हो गया ? और अब तो मुझे क्रोध भी नहीं आ रहा । इस मानव को देखकर मेरे चित्त को यह क्या होने लगा? आखिर यह है कौन ? कौन है, यह ?' चण्डकौशिक की वृत्तियाँ प्रभु के दर्शनमात्र मे बदलने लगी थीं। किन्तु अब तक वह कुछ जान न पाया था, समझ न पाया था। तब भगवान ने प्रेम भरे वचन कहे- 'संबुज्झह, किं न बुज्झह !'-समझ, सोच, जान, अरे चण्डकौशिक ! अपने में झाँककर अपने को जरा देख तो भला, तू कौन था, क्या हो गया ? प्रभु के इन अमृत वचनों को सुनते ही चण्डकौशिक एक अव्यक्त आनन्द में डूब गया। उसे लगा कि वह जन्मजन्मान्तरों के पार चला जा रहा है""द्वार पर द्वार खुलते चले जा रहे हैं......। प्रभू की कृपा से उसे बोध हुआ। जातिस्मरण ज्ञान का प्रकाश उसके समस्त अतीत पर फैल गया। उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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