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वह विषधर
अस्थिग्राम में अपना प्रथम वर्षावास पूर्णकर भगवान महावीर श्वेताम्बिका की ओर बढ़े। दो मार्ग श्वेताम्बिका को जाते थे। एक लम्बा था, दूसरा सीधा । भगवान ने सीधे मार्ग से ही जाने का निश्चय किया था।
वे चले तो लोग विस्मित और व्याकुल हो गये। बोले-"प्रभु ! यह क्या करते हैं ? यह मार्ग तो संकटपूर्ण है। इस मार्ग पर एक महा भयंकर विषधर रहता है। वह दृष्टिविष सर्प है। उसके कारण जो कोई भी इस मार्ग से कभी भूल से भी गया है वह न आगे बढ़ सका और न जीवित लौट सका। प्रभु ! इस माग से न जाइए।"
लोग तो सरल थे । भगवान में भक्ति रखते थे, इसलिए उन्हें रोक रहे थे। किन्तु भय किस चिड़िया का नाम है यह बात अभय भगवान जानते तक न थे । वे निर्मल मुसकान बिखेरते हुए शान्त-भाव से आगे बढ़ते चले गये।
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