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४४ | सोना और सुगन्ध
कोशा ने कहा
"नेपाल नरेश प्रत्येक साधु को एक रत्न-कंबल देता है । उसका मूल्य एक लाख मुहरों जितना है । आप वह ले आइये।"
कामासक्त मुनि कुछ विचार न कर नेपाल के लिए चल पड़ा। रत्न-कम्बल लेकर जब वह लौट रहा था तब मार्ग में चोरों ने उसे लूट लिया। वह फिर नेपाल गया। दूसरा रत्न-कम्बल लाया और इस बार उसे बाँस की लकड़ी में छिपा लिया। जंगल में उसे फिर चोर मिले, किन्तु इस बार वह यह कहकर बच गया कि 'भाई, मैं तो भिक्षुक हूँ, मेरे पास कुछ नहीं।' __मुनि कोशा के यहाँ आ पहुँचा। रत्न-कम्बल उसने कोशा को दिया। किन्तु कोशा ने उसे मुनि के सामने ही अशुचि में फेंक दिया। मुनि ने कहा-"अरे, अरे, तुमने यह क्या किया? इतनी कठिनाई और कष्ट सहकर लाया गया यह सुन्दर रत्न-कम्बल तुमने गंदा कर दिया ?"
तब कोशा ने मुनि की आँखें खोलीं
"हे मुने ! विचार कीजिए, जिस प्रकार अशुचि में गिरने से यह रत्न-कम्बल खराब हो गया, उसी प्रकार काम-भोगों के निकृष्ट कोच में पड़ने से क्या आपकी आत्मा मलिन न हो जायगी ? आपने विषय-भोगों को निकृष्ट
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