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३८ | सोना और सुगन्ध बहुत समय को अपनी तपस्या और त्याग को उन्होंने व्यर्थ गँवा डाला। लालसा की तीव्रता में अधिक गरिष्ट आहार एवं विलास की अधिकता से उनका शरीर पुनः रोगग्रस्त हो गया। उन्हें पित्त ज्वर हो आया । सारा शरीर दाह से जलने लगा। वेदना को पराकाष्ठा हो गई।
अपने पैरों पर उन्होंने आप ही कुल्हाड़ी मार ली।
बहुत समय तक रोग-शोक सहन कर अति विलास के वशीभूत मन लिए वे आर्तध्यान में पड़े। शरीर को रहीसही शक्ति विनष्ट हो जाने पर अन्त में दुःखद मृत्यु प्राप्त कर वे सातवी पृथ्वी में, सर्वोत्कृष्ट स्थिति वाले नरक में, नारक रूप में उत्पन्न हुए।
दूसरी ओर पुण्डरीक अनगार ने स्थविर भगवन्त से दीक्षा ग्रहण की, तप एवं स्वाध्याय किया और अन्त में समय आने पर उन्होंने 'शुभध्यान में लीन होकर, समस्त शल्यों का त्याग कर शरीर छोड़ दिया।
यहाँ से काल कर वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ से आयु पूर्ण करके वे सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर परम सिद्धि को प्राप्त करेंगे।
सद्धर्म को जानकर, मानकर और ग्रहण करके भी उसे त्याग देना स्वयं अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार लेना नहीं तो और क्या है ?
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