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३६ | सोना और सुगन्ध
लेकिन उनका मन नहीं लगा । तपस्या अब उन्हें कष्ट कर प्रतीत होती । त्याग उन्हें प्रिय नहीं लगता।
अतः एक दिन स्थविर की आज्ञा के बिना ही वे चल पड़े और लौटकर पुण्डरीकिणी नगरी में आ गए। वहाँ आकर राजा पुण्डरीक के निवास के समीप ही अशोक वाटिका में एक अशोक वृक्ष के नीचे आकर एक शिलाखंड पर वे बैठ गए । उनका हृदय बोझिल था। मन में चिन्ता थी। वे अनुभव करते थे कि जैसे उनके सकल मनोरथ भग्न हो गये हों।
इस विचित्र स्थिति में वे बहुत देर तक बैठे रहे। उसी समय राजा की धायमाता किसी कार्यवश वाटिका में आई। उसने अनगार को उदासी में डूबे देखा। आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी हुआ। चुपचाप वह राजा के पास जाकर वोली'देवानुप्रिय ! तुम्हारा भाई अशोकवाटिका में बैठा है।'
"मेरा भाई ? कौन ? क्या कण्डरीक अनगार? वह तो विहार कर गये थे न ? . "हाँ ! किन्तु वे लौट आए हैं; और दुःखी प्रतीत होते हैं। तुम जाकर देखो और यथोचित करो।"
राजा आया। अनगार से उसने पूछा"इस प्रकार अकेले, विना सूचना के ही आप कब
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