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३४ | सोना और सुगन्ध
एक बार मुनिवर का आगमन फिर उसी नगरी में हुआ । राजा पुण्डरीक का भाई कण्डरीक युवराज था । उसने मुनिवर का उपदेश सुना और वैराग्य भावना हृदय में उदित होने से महल में आकर राजा से कहा
" स्थविर मुनि से धर्म सुनकर अब मैं इस संसार में कोई रुचि रखने में असमर्थ हूँ । कृपया आप मुझे दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान करें ।"
राजा ने अपने भाई को समझाया बुझाया और कहा कि कुछ समय तक राज्य का सुख भोगने के बाद ही दीक्षित होना श्रेयस्कर होगा, किन्तु कण्डरीक नहीं माना । अन्त में विवश होकर पुण्डरीक ने आज्ञा दे दी ।
शीघ्र ही कण्डरीक मुनि ने अध्ययन द्वारा ग्यारह अंगों का ज्ञान अर्जित कर लिया । किन्तु निरन्तर कठिन तप एवं विहार करते रहने के कारण उनका शरीर रोगग्रस्त हो गया । उस रुग्णावस्था में जब मुनि कण्डरीक विहार करते हुए पुण्डरीकिणी नगरी में पधारे हुए थे, तब उनकी अस्वस्थता की बात जानकर राजा पुण्डरीक स्थविर भगवन्त के समीप जाकर बोले
"भगवन् ! कण्डरीक अनगार का शरीर रोगग्रस्त हो गया है । उन्हें औषधि की आवश्यकता है। यदि आप मेरी मानशाला में पधारने की कृपा करें तो उपयुक्त हो ।” ऐसा ही किया गया और अनुकूल औषध से शीघ्र ही
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