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३२ | सोना और सुगन्ध
श्रेणिक-रोहिणेय ! तुम्हारा क्या विचार है ? मैं भगवान के चरणों में दीक्षा लेना चाहता हूँ।
श्रेणिक के ही नहीं, सभी सभासदों के हत्तंत्री के तार झनझना उठे--धन्य है ! यह हिंसा पर अहिंसा की विजय थी, सन्देह पर विश्वास की विजय थी, भय पर अभय की विजय थी।
त्रिपष्टि० १०/६ -आख्यानक मणिकोष १२/३८
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