SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ | सोना और सुगन्ध गई। उसे फटकारते हुए कहा-रोहिणेय ! तू बहुत ही दुष्ट है, तेने मेरी प्रजा को कितना कष्ट दिया है। अपने पापों को स्मरण कर ! बन्दी ने कहा-राजन् ! आपका कथन बिलकुल ही उचित है। जिस रोहिणेय ने राजगृह को इतना कष्ट दिया है, उसे मृत्यु दण्ड अवश्य ही मिलना चाहिए किन्तु मैं तो रोहिणेय नहीं हूँ, क्या मुझे भी दण्ड मिलना चाहिए। बन्दी की बात सुनते ही सभा में एक सन्नाटा छा गया। सभी उसके चेहरे की ओर देखने लगे ? सभी के अन्तर्मानस में यह प्रश्न कचोटने लगा क्या यह रोहिणेय नहीं है ? तो फिर यह कौन है ? श्रेणिक ने प्रतिप्रश्न किया-क्या तू रोहिणेय नहीं है ? हाँ, मैं रोहिणेय नहीं हूँ, मैं तो शालिग्राम का व्यापारी हूँ और मेरा नाम दुर्गचण्ड है । तू क्या व्यापार करता है ? जवाहरात का। रात्रि में कहाँ पर जा रहा था ? रात्रि में मैं अपने गाँव से राजगृह आ रहा था। कुछ विलम्ब हो गया। प्रहरियों ने मुझे बन्दी बना लिया। क्या तू सत्य कह रहा है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy