________________
बुद्धि का चमत्कार | २१ वह अमात्यपुत्र के चरणों में गिर पड़ा। कहिए क्या आदेश है, जो भी सेवा हो, मैं उसके लिए सदा तत्पर हूँ।
अमात्यपुत्र की आँखें आँसुओं से उबडबा गईं---- दन्तिल ! तुम अपना जाल समेटो और पिताश्री को शीघ्र ही कारागृह से मुक्त कराओ।
दन्तिल-आप चिन्ता न करें, मैं ऐसा प्रयास करूंगा जिससे प्रधानमन्त्री शीघ्र हो मुक्त हो सकें।
दूसरे दिन प्रातः होते ही दन्तिल अपनी पत्नी के साथ राजमहल में पहुँच गया। कुछ सफाई करने के पश्चात विश्राम के बहाने वह उसी स्थान पर बैठ गया जहाँ कल बैठा था और पत्नी से कहने लगा-रामू की माँ ! राजा के कान बहुत ही कच्चे होते हैं। उनमें सोचने की शक्ति ही नहीं होती। वे जैसा सुनते हैं वैसा ही कार्य बिना विचारे कर देते हैं। देख न, प्रधानमन्त्री कितना भला था । जो रात-दिन राजा के और प्रजा के हित में लगा रहता था। उसके समान राजभक्त हूँढ़ने पर भी नहीं मिल सकता। उसने अपने जीवन में आज दिन तक किसी का भी बुरा न किया। उसने अपना सारा जीवन राज्यसेवा में लगाया। उसे कारागृह में बन्द कर राजा ने अपने दिमाग का दिवाला ही निकाल दिया। क्या उसकी अमूल्य सेवाओं का यही पुरस्कार है ?
महतरानी-तुम्हें क्या हो गया है ? जब देखो तब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org