SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ / सोना और सुगन्ध ___ एक दिन राज्य के विशिष्ट-शिष्ट अधिकारियों का भोजन था। कुछ लोग भोजन से निवृत्त हो चुके थे और कुछ भोजन कर रहे थे । दन्तिल ने समझा सभी भोजन से निवृत्त हो चुके हैं इसलिए वह अपने सफाई के कार्य में लग गया। वह सफाई कर रहा था। प्रधानमन्त्री ने देखा, उन्हें गुस्सा आ गया। उन्होंने उसे डाँटते हुए कहा-कौन है, दन्तिल ! तुझे शर्म नहीं आती। अन्दर सरदार लोग भोजन कर रहे हैं, और तुझे सफाई की उतावल लगी है। जल्दी निकल जा, नहीं तो डण्डे पड़ेंगे। शूद्र कहीं का ! प्रधानमन्त्री की तर्जना से दन्तिल के स्वाभिमानी मानस को गहरी ठेस पहुँची। उसका स्वाभिमान जाग उठा । क्या कर्तव्य-परायणता का यही पुरस्कार है । मैं अन्त्यज हूँ, यह सत्य है । पर क्या मैं मानव नहीं हूँ। मुझे तो दुत्कारा जा रहा है और उस कुत्ते को अपनी गद्दी पर बिठाये हुए हैं और प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे हैं । मैं सफाई का कार्य करता हूँ इसका यह अर्थ तो नहीं कि मैं कुत्ते से भी गया गुजरा हूँ। उसकी आँखें मिर्च की तरह लाल हो गईं। भुजाएँ फड़फड़ाने लगी, दाँत होठ काटने लगे । वह मन ही मन सोच रहा था कि सत्ता और सम्पत्ति के नशे में एक मानव दूसरे मानव का कितना भयंकर अपमान कर देता है, इसका उसे खयाल ही नहीं। प्रधानमन्त्री हैं तो राज्य संचालन के लिए हैं, परन्तु किसी के स्वाभिमान को लूटने के लिए नहीं हैं। मैं इनके यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy