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ध्यानयोगी दृढ़प्रहारी मुनि | १३ व्यक्तियों के मन में दुःख की दावाग्नि सुलगाई है। वे सभी मेरे दुष्कृत्यों से परिचित हैं अतः वे मुझे नाना प्रकार के परीषह देंगे जिससे मेरे कर्मों की निर्जरा होगी और मैं शीघ्र ही कृत-पापों से मुक्त हो सकूगा । वह पूर्व दिशा के द्वार पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हो गया।
सैकड़ों स्त्री-पुरुष व बच्चे उस मार्ग से गुजरते, मुनि को देख उनका रोष जाग उठता। अरे ! इसने मेरे भाई को मारा है, अरे इसने मेरे पिता को खत्म किया है, अरे ! इसने तो मेरे पुत्र को हत्या की है। हमारे धन को लूटा है और अब यह पाखण्डी साधु का वेष पहनकर खड़ा है। शर्म नहीं आती इसे ! गुस्से में आकर कोई पत्थरों से पूजा करता, कोई लकड़ी से प्रहार करता, कोई धूल उछालता, कोई उन पर थूकता, कोई गालियों की बौछारें करता। किन्तु दृढ़प्रहारी मुनि शान्त रहते, कभी भी किसी पर क्रोध न करते । डेढ़ महीने तक वे वहीं पर ध्यानस्थ खड़े रहे। सभी का रोष व जोश शान्त हो गया। फिर प्रतिदिन उधर से सैकड़ों आदमी निकलते पर कोई भी कुछ न कहता।
डेढ़ महीने के पश्चात् दृढ़प्रहारी मुनि उत्तर दिशा के द्वार पर खड़े हो गये। उधर से निकलने वाले लोगों ने भी डेढ़ महीने तक उन्हें भयंकर कष्ट दिये, पर उनकी शान्ति भंग नहीं हुई। डेढ़ महीने के पश्चात वे पश्चिम के द्वार पर खड़े रहे और डेढ़ महीने तक दक्षिण द्वार पर । इस
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