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ध्यानयोगी दृढ़प्रहारी मुनि | ११ एक दिन वह तस्करों के समूह को लेकर एक बड़े नगर को लूटने के लिए चला और नगर को लूटकर सानन्द अपनी पल्ली की ओर लौट रहा था। वह काफी थका हुआ था अतः विश्राम के लिए एक ब्राह्मण के चबूतरे पर बैठ गया । ब्राह्मणी उस समय भोजन बना रही थी। खीर तैयार हो गई थी। अपने द्वार पर अतिथि को देखकर उसने भोजन के लिए दृढ़प्रहारी को निमंत्रण दिया। दृढ़प्रहारी को जोर से भूख लग रही थी, वह चूल्हे के सन्निकट जाकर बैठ गया। ब्राह्मणी को यह व्यवहार अनुचित लगा। उसने कहा-भाई ! यह ब्राह्मण का घर है, घर की मर्यादा का तुम्हें खयाल रखना चाहिए। तुम्हें इतना तो ध्यान होना ही चाहिए कि तुम्हारे छूने के पश्चात भोजन हमारे काम में नहीं आता । अत: कुछ दूर बैठो, मैं तुम्हें भोजन कराती हूँ।
दृढ़प्रहारी को लगा कि ब्राह्मणी मेरा अपमान कर रही है। उसे क्रोध आ गया। उसके पास तलवार थी। उसने न इधर देखा न उधर; ब्राह्मणी के दो टुकड़े कर दिये । ब्राह्मणी की करुण चीत्कार को सुनकर ब्राह्मण दौड़ता हुआ उसे बचाने के लिए आया । दृढ़प्रहारी ने उसे भी यमलोक पहुंचा दिया। पास में ही गाय खड़ी थी। अपने स्वामी की निर्मम हत्या देखकर वह उसके प्रतिशोध के लिए दृढ़प्रहारी के सामने हुई । दृढ़प्रहारी कहाँ पीछे हटने वाला था, उसने तलवार का ऐसा वार किया कि गाय के पेट को ही चीर
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