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८ | सोना और सुगन्ध
हो, तुम्हें तो समझाना चाहिए था कि समझदार बालक कभी भी ऐसा नहीं करते ।'
नागला तो यही चाहती थी । उसने मुनि को सम्बोधित कर कहा -- मुनिप्रवर ! इस अबोध बालक ने वमन को चाट लिया यह ठीक नहीं किया, किन्तु आप जरा गहराई से चिन्तन कीजिए। जिस विषय-वासना को, सांसारिक सुख-वैभव को, आपने वमन समझकर छोड़ दिया उसे ही आप पुनः ग्रहण करने के लिए उद्यत हुए हैं। क्या यह कार्य भी बालक की भाँति वमन चाटने के सदृश नहीं है ? आपने वर्षों तक शास्त्रों का अध्ययन किया है, दीर्घ तपस्याएँ की हैं, स्वाध्याय- ध्यान आदि किया है फिर भी आप बालक की तरह गलती कर रहे हैं। क्या यह आपको शोभा देता है ? आप जिस नागला के प्रेम के पीछे पागल बन रहे हैं, वह नागला मैं ही हूँ। मैं आपसे स्पष्ट शब्दों में निवेदन करना चाहूँगी कि मैं आपका मुनि के रूप में सत्कार कर सकती हूँ, पर पति के रूप में नहीं । प्राण भी चले जायेंगे तो भी मैं प्रण नहीं तोडूंगी। भले ही आप मुझे भय, प्रलोभन आदि दिखाएँ पर मैं कभी भी अपने मार्ग से च्युत न होऊँगी, अतः आपके लिए यही श्रेयस्कर है कि अपने भाई भवदेव मुनि की भाँति संयम - साधना में पूर्ण दृढ़ रहकर अपने जीवन को चमकाएँ ।
नागला के शब्द-तीरों से भावदेव मुनि का हृदय बींध
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