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________________ ११२ | सोना और सुगन्ध कर्म विपाक से मनुष्य स्वयमेव दण्ड पाता है । हास्यविनोद में किये गये कर्म भी बँध जाते हैं, और अपना फल देते हैं। अपने किये का दण्ड यह स्वयं पायेगा । " बेटा ! इसे ही तू अपना भाई मान । अपने हृदय को विस्तार दे तो सभी तुझे अपने भाई ही लगेंगे ।" कुलपुत्र ने तलवार से वन्धुघातक के वन्धन काट डाले और अपने गले से लगाकर हर्ष-विह्वल बोला "आज से तू ही मेरा भाई है । भले ही आज मैं जीता हुआ शत्रु हार गया, पर इस हार में भी जीत है । मुझे मेरा भाई मिल गया ।" उस व्यक्ति की आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे। इस बन्धु - मिलन को देखकर क्षत्राणी ने कहा " बेटा ! तूने शत्रु को जीत कर नहीं हारा, बल्कि एक. दुर्जेय शत्रु को जीता है । यह एक ऐसा शत्रु है, जिसे बड़ेबड़े पराक्रमी वीर भी नहीं जीत पाते । " - कुलपुत्र - “कौन-सा शत्रु, माँ ?" क्षत्राणी - "क्रोध ! बेटा ! क्रोध दुर्जेय शत्रु है । इसे जीतना ही सच्ची वीरता है । आज तूने सबसे बड़े दुर्जेय शत्रु को जीत लिया है। " अच्छा माँ" कहकर कुलपुत्र माँ के चरणों में गिर गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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