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________________ ११० | सोना और सुगन्ध मैं इसे नहीं छोडूगा। इसके आँसू, इसकी दीनता-सब अभिनय है।" क्षत्राणी-"बेटा ! तू सब कह चुका या और कुछ कहना है ?" कुलपुत्र-"वस माँ ! अब और क्या कहूँगा ?" क्षत्राणी ने कहा "तो सुन बेटा ! मैं वही कह रही हूँ जो एक वीरमाता को कहना चाहिए। क्षमा हो तो वीर का भूषण है । पहले अगर तू इसे जिन्दा छोड़ता तो वह तेरी बेबसो थी । कायर अपने शत्रु को डर कर ही छोड़ता है, कायर क्या क्षमा करेगा, वीर ही क्षमा कर सकता है। वीर की शोभा उसकी क्षमा है। ___"बेटा ! जैसे आज मैं अपने बेटे के बिना तड़प रही हूँ, वैसे ही इसकी बूढ़ी माँ भी तड़पेगी। आज एक माँ तड़पती है, तब दो माताएँ तड़पेंगी। इसके मारने से भी न तो तुझे तेरा भाई मिलेगा और न मुझे मेरा बेटा मिलेगा।" कुलपूत्र ने पूछा "लेकिन माँ ! इसने मेरे भाई का खून किया, उसका बदला कैसे पूरा होगा ?" क्षत्राणी मुस्कराई"बेटा ! कोई किसी को नहीं मारता। मनुष्य अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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