SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दुर्जेय शत्रु को जीता | १०७. तू सभी द्वन्द्वों को समान समझेगा-शाम-सवेरा, रात-दिन, जाड़ा-गरमी, धूप-छाँह, भूख-प्यास सभी तेरे लिए बराबर हैं-वस, तेरा एक उद्देश्य है-बन्धुघातक को पकड़कर माँ के चरणों में डालना और उसके खून से इस खड्ग की प्यास बुझाना। कुलपुत्र सुबह से शाम तक भटकता। रात को भी मारा-मारा फिरता । न आँखों में नींद थी, न मन में चैन था। इस तरह भटकते-भटकते पूरे बारह वर्ष बीतने को माये पर उसे उसका शत्रु-बन्धुघातक नहीं मिला । पर क्षत्रिय की प्रतिज्ञा, उसका संकल्प पूरा हो गा, इसकी आशा उसे विचलित नहीं होने दे रही थी। उसकी आँखों पर वैर का चश्मा चढ़ा था। प्रतिहिंसा और प्रतिशोध के दो शीशे थे। अब उसे हर चीज, हर प्राणी में अपना शत्रु ही नजर आता। रात के अंधेरे में झाड़ी का झुरमुट उसे ऐसा लगता, मानो मेरा बन्धुघातक शत्रु कम्बल ओढ़े यहाँ बैठा हो। शत्रु की खोज में पर्वतकन्दरायें, नदी की घाटियाँ, कछार, सघन और विरल अंगल-कुलपुत्र ने सभी कुछ छान मारा। . एक दिन एक सुनसान झोंपड़ी में उसने अपना शत्रु पा लिया और उस पर ऐसे टूट पड़ा, जैसे बाज चिड़िया पर टूटता है या चीता हिरन को दबोच लेता है । बस, कुलपुत्र ने उसकी मुश्क बाँध ली और ले चला अपने घर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy