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________________ १०६ | सोना और सुगन्ध कुलपुत्र का रक्त खौलने लगा। भौंहें तन गईं। म्यान से तलवार खींचते हुए उसने कहा___"माँ ss ! मैं कायर नहीं हूँ। तेरे चरण छूकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब मैं घर तभी लौटू गा, जब भाई के हत्यारे को तेरे चरणों में लाकर पटक दूंगा, और यह सलवार भी म्यान में तभी जाएगी जब तेरे सामने ही यह तेरे पुत्र-घातक का रक्त पी लेगी।" क्षत्राणी माँ की आँखों में प्रेमाश्र थे। उसने पुत्र को ओशीष दिया "मुझे तुझसे यही आशा थी। जा बेटा बन्धु-घातक को मारकर अपने कुल-वंश की परम्परा को सार्थक कर, क्षात्रधर्म का पालन कर । जिनके शत्रु जीवित रहें, उनके जीने को धिक्कार है।" - माँ के मुख से निकले 'कायर' और 'धिक्कार' शब्दों ने मानो उसके शौर्य और साहस को एक ही जगह साकार कर दिया। अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए अब वह क्षण-भर भी नहीं रुका। चलते समय उसे पता ही न था कि रात है या दिन । एक पेड़ के नीचे जब उसने चिड़ियों की चहचहाहट सुनी, तब उसे लगा-'ओह ! सबेरा हो गया ! क्या मैं रात को ही चला आया था ?' यह प्रश्न उसने अपने मन से किया और मन ने ही उत्तर दिया'कुलपुत्र, जब तक तू अपने शत्रु को नहीं पा लेगा, तब तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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