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दुर्जेय शत्रु को जीता | १०५ एक तीसरा स्वर उभरा
"बदले की भावना में आदमी पागल हो जाता है। उचित-अनुचित वह कहाँ सोच पाता है ? पता नहीं किस दुश्मनी का वदला उसने इससे लिया है....?"
ज्यों-ज्यों समय बोता कुलपुत्र और उसकी क्षत्राणी माँ को स्थिति का कुछ ज्ञान हुआ। क्षत्राणी का नारीत्व तड़प उठा । उसने अपने पुत्र को ललकारा
"कुलपुत्र ! कायरों की तरह आँसू ही बहाता रहेगा ? क्या तू कहलाने भर का ही क्षत्रिय है ? क्या तेरी शिराओं में मेरा दूध रक्त वनकर नहीं बह रहा"..?"
माँ को इस ललकार से कुलपुत्र मानो होश में आया
"क्या माँ ! माँ !! अगर मैं होता तो क्या घातक मेरे भाई को मारकर चला जाता ? अगर वह यहाँ होता तो मैं दिखाता कि मैं कैसा क्षत्रिय हैं। जो भाग गया, पीठ दिखा गया, उसके लिए क्या करू ?"
क्षत्राणी ने उसे धिक्कारा
"अरे मूर्ख ! क्या मृग स्वयं ही सिंह के मुख में चला जाता है ? उठ, और यह तलवार ले। अगर तू सच्चा क्षत्रिय है तो आकाश-पाताल एक कर दे । अपने भाई के हत्यारे को धरती के गर्भ में से भी निकाल ला और उसके खून से इस खड्ग की प्यास बुझा, वरना मैं समझूगी कि तू मेरा बेटा नहीं--मेरा बेटा कायर नहीं हो सकता।"
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