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१०० | सोना और सुगन्ध की साध्वी माता को सूचना दी गई। साध्वी मोह-विह्वल होकर पागल बनी चारों ओर चिल्लाती फिरी-'बेटा अरणिक ! तू कहाँ गया ? कहाँ गया, मेरे लाल ? ओ अरणिक ! अपनी माता को दर्शन दे।'
साध्वी के पीछे वालकों की भीड़ लगी चली जा रही थी। दर्शकों ने उनका तमाशा बना लिया था। ऊपर से मुनि अरणिक ने देखा-'कोई पगली चिल्लाती फिर रही है। पीछे-पीछे बच्चे तालियाँ बजाते आ रहे हैं। तभी कान में आवाज पड़ी-'अरणिक ! बेटा अरणिक !' मनि ने आवाज सुनी तो चौंके, ध्यान से देखा-'अरे! यह तो मेरी माँ है ! साध्वी माँ ! मेरे प्रतिबोध से ही इन्होंने और पिताश्री ने दीक्षा ली थी। पिताश्री तो संयम पालन करते हुए परलोक सिधार गये। माँ अभी तक साधना-पथ पर हैं। पर मेरा क्या हुआ ? मैं किस गर्त में गिर गया ? मेरे तो दोनों लोक बिगड़ गए । अव....??' सोचते-सोचते मुनि सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आये और भीड़ से घिरी माँ को पुकारा
"माँ ! मैं यहाँ हूँ !"
साध्वी ने अरणिक को देखा-ऊपर से नीचे तक, नीचे से ऊपर तक । बोलीं
"अरणिक ! यह तूने क्या किया ? मैंने, तेरे पिता ने तुझे बहुत रोका था कि महाव्रतों का पालन तेरे बस का
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