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________________ माँ की पुकार | १०१ नहीं। पर तूने जिद की। इससे तो अच्छा था कि सयम: पथ पर बढ़ता ही नहीं। बढ़कर लोटना कैसी कायरता है-छी ! छी ! तूने मेरे दूध को खुव उज्ज्व ल किया !" ___ सच्ची बात का असर बड़ी जल्दी होता है । मुनि अरणिक का गला भर आया। फफक-फफककर बच्चों की तरह रोने लगे और माँ के पैरों से लिपटकर बोले___ "माँ ! अब मेरा क्या होगा? मैं तो अब कहीं का न रहा । क्या अब भी मेरा उद्धार हो सकता है ?" साध्वी माँ ने कहा "पुत्र ! शोक मत करो। भुल हरेक से होती है, पर सुबह का भूला शाम को लौट आये तो भूला नहीं माना जाता। मुझको ही देख, साध्वी बनकर भी मैं पुत्रमोह का नहीं त्याग सको । भूल करना वड़ा दोष नहीं, बड़ा दोष भूल न मानने में है।" - "वत्स ! असत्य मार्ग पर हम चाहे जितनी दूर जा चुके हों, वहाँ से लौट पड़ना, चलते रहने से बेहतर है। वत्स ! धर्मयुद्ध बाहरी जीत के लिए नहीं होता, वह तो हारकर भी जीतने के लिए होता है। तुम्हारी यह हार भी जीतने के लिए ही हुई है। "अरणिक ! अब शोक न करो। "उठो और कर्तव्य-पथ पर डट जाओ। तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ा है, क्योंकि सत्य और सूर्य की किरणों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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