________________
मां की पुकार | ६६
मन और फीके उत्साह से चलने को हुए तो बाला ने हाथ पकड़कर कहा----
" अव कहाँ जाते हो ? फूलों को ठुकराकर काँटों में भटकना कहाँ की बुद्धिमानी है ? मुने ! आनन्दशून्य जीवन से तो जीवन का न होना अच्छा !"
अरणिक मुनि का हाथ ढीला पड़ गया । उन्होंने रजोहरण, मुखवस्त्रिका उतारकर रख दी और अब तनमन से पूरे गृहस्थ हो गए। काम-सुखों में डूबकर अपने जीवन को बिताने लगे। मुनि अरणिक का पीछे की ओर लौटना एक विडम्बना थी। सुख भोगों के पीछे पड़कर हम महान सद्गुणों की अवगणना करते हैं। सच्चे आनन्द की कसोटी तात्कालिक प्रसन्नता नहीं, बल्कि वास्तविक आनन्दभोग को प्रसन्नता के बाद पछतावा नहीं रहता । जिस भोग में मुनि अरणिक आनन्द मान रहे थे, इसकी परिणति के बाद सभी को पछताना पड़ा है ।
X
X
X
साधुसंघ में सभी चिन्तित थे - 'पूरी रात बीत गई, मनि अरणिक गोचरी के लिए गये थे, अभी तक नहीं लौटे ।' साधुओं की चिन्ता कार्यरूप में परिणत हो गई । मनि को इधर-उधर खोजा । वन मरघट, एकान्त खण्डहर और आस-पास की बस्तियों में खोज कराई, पर अरणिक मुनि का कहीं पता न चला। निराश होकर अरणिक मुनि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org