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माँ की पुकार | ६५ के बाद ही संन्यास की बात सोचना । श्रमण बनकर संयम पालन करना हँसी-खेल नहीं। तलवार की धार पर चलना, इतना आसान नहीं, जितना तुम सोच बैठे हो । महाव्रतों का पालन तुम जैसा सुकुमार राजपुत्र कैसे कर पायेगा? जिसने कभी अपने हाथ से जलपात्र उठाकर पानी नहीं पिया, क्या वह गोचरी के लिए द्वार-द्वार घूम सकेगा? नंगे पैर, नंगे सिर तपती धूप में क्या तुमसे दस कदम भी चला जाएगा ?"
राजपुत्र ने दृढ़ता से कहा
"पिताजी ! जो निश्चय कर लेता है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं । महाव्रतों का पालन करने वाले भी तो आखिर मनुष्य ही होते हैं। मैं भी तो मनुष्य हूँ। हमारे तीर्थंकर भी तो मेरी ही तरह सुकुमार वैभव-सम्पन्न राजपुत्र थे। __ "पिताजी ! हर्ष के साथ मुझे दीक्षित होने की आज्ञा दीजिए । बस, अब तो संयम ही मेरा लक्ष्य है, चारित्र ही मेरा उद्देश्य है-मुक्ति प्राप्त करना ही मेरे जीवन की सफलता है।"
पुत्र की ऐसी दृढ़ता देखकर राजा विचार में पड़ गए-'मैं बूढ़ा हो चला। यौवन सुख भी खूब लूटा, पर अभी तक मैं सांसारिक भोगों से ही चिपटा हूँ। मुझे भी दीक्षा ग्रहण करके आत्म-कल्याण करना चाहिए।'
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