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गया ऐसी आज्ञा क्यों ?
राजा ने नगररक्षक की भाव-भंगिमा को जानते हुए कहा - ' यह न्याय की रक्षा का प्रश्न है. न्याय के पालन के लिए प्रेम और स्नेह को त्यागना होता है । अभी तुम जाओ और मध्याह्न के पश्चात् मलयासुन्दरी को एक रथ में बिठा देना । उससे पूर्व मलया को राजाज्ञा से अवगत करा देना ।'
पद कितना ही गुरुतर क्यों न हो, दासता दासता ही होती है। नगररक्षक 'जी' कहकर लौट गया। उसके हृदय में वेदना उछल रही थी वह मानता था कि मलयासुन्दरी मानवकन्या नहीं, देवकन्या है निर्दोष और पवित्र महाराजा ने ऐसी आज्ञा क्यों दी ?
नगररक्षक मलयासुन्दरी के कक्ष की ओर गया। वहां चार सशस्त्र सैनिक खड़े थे । नगररक्षक को देखते ही नमस्कार कर एक ओर हट गए । नगररक्षक ने पूछा- 'राजकुमारी इसी कक्ष में है ?'
राजाज्ञा के बिना जाता है तो हमें उसका
'हां। वहां यदि कोई भी व्यक्ति शिरच्छेद करने की आज्ञा प्राप्त है ।'
नगररक्षक को और अधिक आश्चर्य हुआ । वह बोला- 'हाय, दासत्व !' कपाल पर हथेली ठोकते हुए वह बोला- 'तुम सबको यहां किसने नियुक्त किया है ?'
'महाप्रतिहार ने...'
'अच्छा !' कहकर नगररक्षक मुड़ गया । इतने में ही महाप्रतिहार दौड़तादौड़ता आया और वहां तैनात सैनिकों से बोला- 'नगररक्षक राजाज्ञा सुनाने आए हैं, उन्हें रोकना मत ।'
चारों सैनिकों ने मस्तक नमाया ।
नगररक्षक ने महाप्रतिहार से कहा - 'महाप्रतिहार ! महाराज के रोष का कारण क्या है ? कुछ भी समझ में नहीं आया ।'
'हम सब तो आज्ञा के नौकर हैं, कुछ भी कह सकते नहीं ।' यह कहकर प्रतिहार वहां से चलने लगा ।
इतने में ही महामंत्रीश्वर का रथ आता दीख पड़ा।
नगररक्षक ने मलया के कक्ष के कपाटों पर पड़ी सांकल खोली । अंदर से दरवाजा बंद था । नगररक्षक ने द्वार खटखटाते हुए कहा - ' राजकुमारी जी, कपाट खोलें । मैं आपको महाराजा की आज्ञा सुनाने आया हूं। मैं नगररक्षक हूं ।"
मलयासुन्दरी ने कपाट खोले । नगररक्षक राजकन्या का चेहरा देखकर अवाक् बन गया । राजकुमारी ने रो-रोकर आंखें सुजा ली थीं । उसका उत्तरीय आंसुओं से भीग चुका था । निरन्तर प्रवहमान आंसुओं से उसके कपोल म्लान हो
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८४ महाबल मलयासुन्दरी
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