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मलया की माता चंपकमाला का मंतव्य जानकर महाराजा बहुत प्रसन्न
हुए ।
फिर उन्होंने कनकावती से पूछा - 'प्रिये ! तू भी मलया की माता है । बोल, तेरे विचार क्या हैं ?"
कनकावती ने राजा के आवेश को पढ़ा और यह जान लिया कि महाराजा किसी भी स्थिति में मलया को क्षमा नहीं करेंगे तो मौखिक यश लेने में हानि ही क्या है, यह सोचकर वह बोली- 'महाराज ! मैं मानती हूं कि मलया का अपराध असामान्य है, जघन्यतम है । पर आप क्षमासिन्धु हैं, क्षमा कर सकते हैं यह एकाकी पुत्री है' 'बाल- बुद्धि है आप विचार करें। मलया बच्ची है । वह बचपन के वशीभूत होकर ऐसा अपराध कर बैठी, यह अज्ञान का ही फल है ।'
'रानी ! मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि प्रेम और कर्तव्य दोनों साथसाथ नहीं रह सकते । कर्तव्य बड़ा है । '
राजा चिन्तन करने लगा ।
दोनों रानियां महाराजा की ओर एकटक देखने लगीं ।
महाराजा ने कहा— न्याय की रक्षा के लिए मैंने यह निर्णय लिया है कि आज की संध्या के पश्चात् मलया का वध कर दिया जाए और स्वयंवर के लिए प्रस्थित राजकुमारों को स्वयंवर - स्थगन का संदेश भेज दिया जाए जो राजकुमार यहां आ गए हैं; उन्हें मलया की मृत्यु के समाचार देकर लौटा दिया जाए ।'
कन्या - वध की बात सुनकर चंपकमाला का हृदय कांपने लगा । वह मूर्तिवत् अप्रकंप रही । रानी कनकावती के हृदय में वैरतृप्ति की शांति होने लगी । वह दिखावटी वाणी में बोली- 'महाराज ! मेरी प्रार्थना है कि आप अपने निर्णय पर पुनश्चिन्तन करें। कन्या - वध को टालें ।'
रानी को उत्तर दिए बिना ही महाराज ने महाप्रतिहार को पुकारा । उसने आकर प्रणाम किया। राजा ने कहा- 'तत्काल महामंत्री और नगर-रक्षक को बुलाओ ।'
'जी ।' कहकर महाप्रतिहार चला गया ।
कुछ समय बीता ।
महाप्रतिहार लौट आया। उसने कहा - ' कृपावतार ! नगररक्षक प्रस्तुत
है ।'
'उसको अन्दर भेज दो ।'
नगररक्षक कक्ष में आया । महाराजा ने कहा
- 'राजकन्या मलयासुन्दरी को निकट के किसी वन- प्रदेश में ले जाओ और उसका वध कर मुझे खबर दो ।' नगररक्षक फटी आंखों से राजा को देखता रह गया । वह विचारों में फंस
महावल मलयासुन्दरी ८३
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