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तत्काल उसे थप्पड़ मार दिया।
मलयासुन्दरी को बहुत आघात लगा। वह कांप उठी।
महाराजा ने कहा-'पिता के वंश का विनाश कर महाबल के साथ तुझे इस राज्य का उपभोग करना है ? चली जा.'मुझे अपना मुंह मत दिखाना। अपने कक्ष से बाहर मत निकलना''अपने भयंकर षड्यन्त्र की सजा भोगने के लिए तैयार रहना।'
'पिताश्री !..." _ 'मैं कुछ भी सुनना नहीं चाहता''तू चली जा यहां से । तेरे स्नेह के वशीभूत होकर मैंने स्वयंवर के लिए लाखों स्वर्णमुद्राओं का व्यय किया है और तू उस स्नेह को ध्वंस करने के लिए कटिबद्ध हुई है । जा, अपना कलंकित मुंह मुझे मत दिखा...' इतना कहकर महाराजा ने महाप्रतिहार को बुलाया । उसके आते ही महाराजा ने कहा--'मलया को अपने कमरे में नजरबंद कर दो। मेरी आज्ञा के बिना कोई भी इससे मिलने न पाए । कक्ष के चारों ओर पूरी जागरूकता से पहरे की व्यवस्था करो और यदि कोई मेरी आज्ञा के बिना मलया से मिलने का प्रयत्न करे तो उसका वहीं शिरच्छेद कर डालो।'
महाप्रतिहार महाराजा की ओर देखता रह गया। उसकी वाणी स्तब्ध हो गयी।
मलया को यह स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी कि स्नेहिल पिता इतने क्रूर हो जाएंगे और प्रेममयी मां मौन भाव से सब कुछ सुनती रहेंगी।
वह रोती-बिलखती हुई खंड से बाहर निकली. "उसके हृदय की वेदना अनन्त थी."उसके पीछे-पीछे महाप्रतिहार भी चल दिया।
महाराजा ने चंपकमाला से कहा--'देखी अपने लाड़-प्यार की प्रतिमा की करतूतें...!'
चंपकमाला क्या उत्तर दे ? उसके हृदय में भारी उथल-पुथल हो रही थी। क्रोध से अंधे बने हुए व्यक्ति विवेक, न्याय और कर्तव्य को नहीं जान पाते।
महाबल मलयासुन्दरी ८१
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