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________________ महाराज कुछ कहें, उससे पूर्व ही सद्यः स्नात महारानी चंपकमाला कक्ष में प्रविष्ट हुई, नमस्कार किया, पूछा- क्या आज्ञा है, महाराज !" 'मलया का स्वयंवर हमारे महान् परिवार के विनाश का हेतु बनने वाला है।' 'आप यह कैसे कह रहे हैं ? ऐसा क्यों होगा ?' 'प्रिये ! जब सन्तान के हृदय में दुर्बुद्धि आती है तब उसमें कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक लुप्त हो जाता है । अपने ही भवन में अपने ही रक्त से एक महान् षड्यन्त्र रचा जा रहा है ।' 'मैं नहीं समझी, महाराज !' महाराजा ने मलया के विषय में जो कुछ रानी कनकावती से सुना था, वह सारा महारानी चंपकमाला को सुनाया । तत्काल महादेवी बोली- 'ओह ! मलया में यह नीचता ? महाराज ! आप - अभी मलया को बुला भेजें ।' तत्काल महाराजा ने मलया को बुलाने के लिए महाप्रतिहार को आज्ञापित किया। थोड़े ही क्षणों में मलया वहां आ पहुंची । उसने आते ही महाराजा, माता चंपकमाला तथा अपरमाता कनकावती को प्रणाम किया और मुसकराते हुए कहा - 'क्या आज्ञा है, पिताश्री ?" 'मलया ! इन तीन दिनों से प्रतिदिन निशा में किसका दूत आता है ?" महाराजा ने क्रोधभरे शब्दों में पूछा । मलया यह सुनते ही हड़बड़ा गयी, फिर संयत स्वर में बोली- 'पिताश्री ! मेरे शयनकक्ष में किसी का दूत क्यों आएगा ? मैं कुछ भी नहीं जानती ।' 'मलया ! तेरा सुन्दर और मासूम चेहरा आज मुझे शान्त नहीं कर पाएगा । मेरे एक प्रश्न का सही उत्तर दे ।' 'कौन-से प्रश्न का ?' 'लक्ष्मीपुंज हार कहां है ? जा. अभी उसे मेरे को सौंप ।' 'लक्ष्मीपुंज हार !' मलयासुन्दरी का हृदय कांप उठा । वह हार तो अपने प्रियतम को वरमाला के रूप में दे चुकी थी पर यह बात कैसे कही जाए ? वह क्षण भर के लिए अवाक् बन गयी । महाराज ने कहा - 'मौन क्यों है ? मेरे प्रश्न का उत्तर दे !' मलयासुन्दरी ने धड़कते हृदय से कहा - 'पिताजी ! वह हार तो कोई चुरा ले गया।' 'दुष्टा ! शैतान ! वह हार चुरा लिया गया !" यह कहते हुए महाराजा ने महावल मलग्नासुन्दरी ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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