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'बोल...
‘कल रात मलया ने उस दूत को लक्ष्मीपुंज हार देते हुए कहा था--युवराज को यह हार दे देना और कहना कि इस हार को धारण करके ही यहां आए " इस हार के प्रभाव से वे अवश्य ही विजयी होंगे ।'
'ओह ! बहुत भयंकर योजना है । किन्तु रानी ! इस बात के पीछे।' बीच में ही कनकावती ने कहा- 'कृपानाथ ! मुझे भय था कि आप मेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगे किन्तु मैंने सारे अपवादों को एक ओर रखकर बात प्रस्तुत की है मेरी बात की यथार्थता का परीक्षण करना चाहें तो आप तत्काल मलया से कहें कि वह लक्ष्मीपुंज हार लाकर दे यदि मेरा कथन सत्य होगा तो मलया हार नहीं दे पाएगी क्योंकि वह हार पृथ्वीस्थानपुर की ओर प्रस्थित दूत के साथ युवराज को भेजा जा चुका है और यदि वह हार मलया प्रस्तुत कर देती है तो आप मुझे ईर्ष्या और द्वेष से अंधी बनी दुष्टा मानें और मेरा वध करा दें ।'
महारानी के ये शब्द महाराजा वीरधवल को तीर से चुभे । वे अचानक उठे और क्रोध से लाल-पीले होते हुए अपने कक्ष में इधर-उधर चक्कर लगाने लगे । कुछ क्षणों के बाद उन्होंने पुकारा - ' बाहर कौन है ?"
तत्काल महाप्रतिहार हाजिर हुआ ।
महाराजा बोले --- ' महादेवी को तत्काल बुलाकर ले आ । वह चाहे कुछ भी काम कर रही हों, तत्काल आने के लिए कह दो ।'
'जी' कहकर प्रतिहार चला गया ।
उस समय एक परिचारक ने आकर निवेदन किया- 'स्नान' मैं बाद में स्नान करूंगा ।'
'अच्छा, परिचारक चला गया ।
रानी कनकावती ने कहा- 'महाराज ! मलया की अपरिपक्व बुद्धि का ही परिणाम है, यह समझकर आप जल्दबाजी में कोई निर्णय न लें ।'
'प्रिये ! जो कन्या अपने पितृवंश का विनाश कर सुख भोगने का स्वप्न संजोती है वह अपरिपक्व बुद्धि वाली नहीं कही जा सकती । किन्तु उसे दुष्टबुद्धि कहा जा सकता है। ओह ! मलया को मैंने कितने लाड़-प्यार से पाला है । यह सदा शांत रहती थी । यदि तेरी बात सत्य होगी तो मुझें मलया को कठोरतम दंड देना होगा उस समय मैं पिता नहीं, राजा होकर अपने कर्तव्य का पालन करूंगा तेरी बात असत्य है, यह मैं नहीं मान सकता, क्योंकि तूने अपने वध की बात कही है. "कोई भी व्यक्ति इस प्रकार अपना वैर भाव प्रदर्शित नहीं कर सकता ।'
'फिर भी कृपावतार ! आप उतावली न करें, यह मेरी प्रार्थना है ।'
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महाबल मलयासुन्दरी ७६
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