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________________ १६. लाड़-प्यार की प्रतिमा स्वयंवर के केवल सात दिन शेष थे। युवराज महाबल दो दिन पश्चात् प्रस्थान करने वाले थे। तैयारियां हो रही थीं। युवराज महाबल को विचित्र अनुभव होने लगा' 'जब वह शय्या में सोता रहता तब उसे यह अनुभव होता कि कोई हाथ उसका स्पर्श कर रहा है अथवा कोई शयनकक्ष में घूम रहा है परन्तु उसे कुछ भी नहीं दीख रहा था। दो दिन बीते। तीसरे दिन एक चमत्कार घटित हो गया । महादेवी पद्मावती के पास लक्ष्मीपुंज हार था। इस हार को महाबल के गले में पहनाकर वह युवराज को स्वयंवर में भेजने वाली थी 'किन्तु तीसरे दिन की मध्यरात्रि में उसके गले से वह हार अदृश्य हो गया। . कोई गले से हार निकाल रहा है, यह अनुभव रानी को हुआ और उसने आंख खोलकर देखा तो हार गायब था । वह चिल्लायीं। दास-दासियां आ गईं। महाराज पार्श्ववर्ती खंड में शयन कर रहे थे । वे भी आ गए। उन्होंने आते ही पूछा-'देवी! क्या बात है ? इतनी भयभीत क्यों हैं ?' 'स्वामीनाथ ! मेरे गले से किसी ने दिव्यहार गायब कर डाला।' 'क्या यह सही है?' 'हां, मैं हार पहनकर ही सोयी थी. "मैं चाहती थी कि जब महाबल यहां से प्रस्थान करेगा तब मैं उसका तिलक कर यह हार पहनाऊंगी..' यह कहतेकहते रानी अत्यन्त दुःखित होती हुई मौन हो गई। महाबल भी वहां आ पहुंचा । उसने हार चुराए जाने की बात सुनी और आश्चर्यचकित रह गया। उसने पूछा-'मां ! आपके शयनकक्ष में क्या कोई दासी सो रही थी ?' नहीं 'दास-दासी सब बाहर ही सोते हैं.'शयनकक्ष का द्वार भीतर से बंद कर मैं सो रही थी. 'केवल दो गवाक्ष खुले थे। परन्तु इन गवाक्षों से महाबल मलयासुन्दरी ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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