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________________ कनकावती में रूप है, पर उसमें चन्द्रमा का अमृत नहीं है, ज्वालामुखी का लावा भरा हुआ है । अब क्या करूं ? क्या कनकावती को यहां से अन्यत्र भेज दूं पर चंपकमाला नहीं चाहेगी. इस प्रकार अनेक चिन्तनों में उलझता - सुलझता हुआ नृप सोचने लगाक्या अभी मैं चंपकमाला से मिलने के लिए उसके कक्ष में जाऊं "नहीं-नहीं, संभव है अभी तक वह मलया के कक्ष में ही होगी मां-बेटी का एकान्त मिलन... महाबल जब अतिथिगृह में पहुंचा तब रात्रि का चौथा प्रहर प्रारंभ हो चुका था । सेवक जाग गए थे‘“प्रस्थान की तैयारी हो रही थी. दो रथ भी आ गए थे। युवराज को शयनगृह में न पाकर सारे उदास हो गए थे । मंत्रियों ने सोचा, अचानक युवराज कहां चले गए ? हम जब सोने गए थे, तब युवराजश्री सो रहे थे । अब उन्हें कहां ढूंढ़ें ? मंत्री चिन्ता कर ही रहे थे कि इतने में महाबल वहां पहुंच गया। उसने कहा - 'नींद नहीं आ रही थी, इसलिए उपवन में जाकर एक वृक्ष के नीचे बैठ गया था और वहां कुछ झपकी आ गई थी ।' 'अब आप शीघ्र तैयारी करें, हम सब आपकी चिन्ता में मृतवत् हो गए हैं ।" महाबल ने प्रस्थान की तैयारी की । लक्ष्मीपुंज हार को एक पेटी में रखा और उसे अपने पास ले लिया । उषा की प्रथम किरण विश्व का अभिनंदन करे, उससे पूर्व ही सभी ने पृथ्वीस्थानपुर की ओर प्रस्थान कर दिया । युवराज रथ में नहीं, अपने अश्व पर सवार था । जाते-जाते उसने राजप्रासाद के झरोखों की ओर देखा, पर वृक्षों की ओट के Share कुछ भी दिखाई नहीं दिया । Jain Education International महाबल मलयासुन्दरी ६७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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