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महाबल वातायन के पास गया। इधर-उधर देखा, नीचे देखा और तत्काल आकर बोला-'प्रिये ! वातायन के मार्ग से मैं नीचे उतर जाऊंगा । सोपानवीथी से जाना खतरे से खाली नहीं है। यही निरापद मार्ग है। यदि रेशम की रस्सी मिल जाए तो सरलतापूर्वक नीचे उतरा जा सकता है।'
मलयासुन्दरी अपने कक्ष से बाहर गई। पास के खण्ड में दो दासियां जाग रही थीं । महाराजा तथा सैनिकों के आवागमन से उनकी नींद उचट गई थी।
राजकुमारी को देख वे उठी और शान्त खड़ी हो गयीं । मलया ने पूछा'अभी तक जाग रही हो, क्या नींद नहीं आती ?'
'राजकुमारी जी ! जब महाराजाश्री पधारे थे तब नींद उड़ गई।' 'अच्छा, मुझे रेशम की रस्सी ला दो।'
'अच्छा ! कहकर एक दासी भीतर गई और कौशेय की एक सुन्दर रज्जु मलया को दी।
मलयासुन्दरी बोली-'अब सो जाओ, जागने की आवश्यकता नहीं है..." यह कहकर मलया अपने खण्ड में आ गई। __ महाबल ने रज्जु को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की।
महाबल बोला-'प्रिये ! अब वियोग का क्षण उपस्थित हो गया है। धैर्य रखना। भयंकर विपत्ति में भी हताश मत होना । जब कभी मन में निराशा आए तब महामन्त्र नमस्कार का स्मरण करना । यह कभी मत भूलना।'
मलयासुन्दरी के नयन सजल हो गए।
महाबल वातायन के पास गया। वातायन के खम्भे से रज्जु का एक छोर बांधा और शेष को नीचे फेंक दिया। महाबल ने कहा---'प्रिये ! निश्चिन्त रहना। जब मैं नीचे उतर जाऊं तब रज्जु को खींच लेना।'
और जैसे कोई नट रज्जु पर नृत्य करता है, वैसे ही महाबल सहजतया रज्जू के सहारे नीचे उतर गया।
मलयासुन्दरी सजल नयनों से प्रियतम को देखती रही। अन्धकार तो था ही, फिर भी प्रियतम का अस्पष्ट प्रतिबिम्ब दीखता रहा । जब तक छाया के दर्शन होते रहे तब तक मलया वहां खड़ी रही और जब कुछ भी दीखना बन्द हो गया, तब उसने रज्जु को खींचा । खम्भे से उसे खोला और उचित प्रकार से उसे समेटकर एक ओर रख दिया।
इधर महाराजा वीरधवल अपने कक्ष में गए। उन्होंने सोचा, ऐसी शांतमूर्ति और संस्कारित कन्या मलया पर आरोप लगाते समय क्या कनकावती का हृदय पत्थर बन गया था ? यदि कनकावती की यह ईर्ष्या घर कर गई तो वह भयंकर अनर्थ घटित कर सकती है। वह मलया के जीवन को खतरे में डाल सकती है। रूप के साथ अंगारे होते हैं, यह कल्पना कैसे की जा सकती है ?
६६ महाबल मलयासुन्दरी
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