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________________ चला था. "मैंने ही उसे मलया का खण्ड बताया था. वह भीतर गया'."मैंने बाहर खड़े रहकर सब-कुछ सुना'प्रेम की मीठी मनुहारें हो रही थीं... मलयासुन्दरी ने लक्ष्मीपुंज हार वरमाला के रूप में युवक के गले में पहनाया था'"फिर मैं बाहर से कपाट बन्द कर महाराजा के पास गई "यह सब यथार्थ और प्रत्यक्ष-दृष्टि होने पर भी युवक कहां अदृश्य हो गया? उसके स्थान पर चंपकमाला कहां से टपक पड़ी ? ओह ! मेरा कितना तिरस्कार हुआ ? मेरी कितनी भर्त्सना हुई ? मैं झूठी सिद्ध हुई । आंखों देखी, कानों सुनी बात झूठी हो गई। इसमें मलया का ही जाल लगता है। निश्चित ही मलयासुन्दरी मेरे पूर्वजन्म की शत्रु है। आज उसके प्रति मेरी शत्रुता का भाव प्रचण्ड रूप से उभर रहा है। एक मलया के कारण मुझे यह सब-कुछ सहना पड़ रहा है। अब मुझे किसी भी उपाय से मलया को मौत के घाट उतार देना चाहिए। मुझे विष देकर उसे मार डालना चाहिए। यही मेरे लिए हितकर है। ___ इस प्रकार का चिन्तन कनकावती के मन को भारी बना रहा था । जब व्यक्ति के अहं पर चोट होती है, उसका मान भंग होता है तब वेदना प्रचण्ड हो जाती है। कनकावती अपनी शय्या पर सोने का प्रयास करने लगी। करवट बदलतेबदलते उसे नींद आ गई। इधर मलयासुन्दरी ने जब द्वार बन्द किया तब महाबल तत्काल बोल उठा'अब मैं मूलरूप में आना चाहता हूं।' महाबल ने गुटिका मुंह से निकाली और कुछ ही क्षणों में वह मूल रूप में आ गया। वह बोला--'प्रिये ! अब मुझे यहां से चले जाना चाहिए।' मलयासुन्दरी बोली-'प्रिय ! मन के कुतूहल को शान्त कर आप पधारें। मैं जानना चाहती हूं कि यह गुटिका आपको कहां से मिली ?' महाबल बोला-'तन्त्र-विज्ञान के एक आचार्य ने मुझे यह दी है । राजकुमारी ! यह गुटिका आज मेरे पास नहीं होती तो हम दोनों बड़ी विपत्ति में फंस जाते।' ____ 'यह तो अद्भुत चमत्कार है । क्या ऐसी कोई अन्य गुटिका भी आपके पास है ? 'हां, मेरे पास ऐसी गुटिका है। उस गुटिका को आम के पत्ते के रस में घिसकर उसका तिलक किया जाए तो स्त्री पुरुष बन सकता है और पुरुष स्त्री बन सकती है किन्तु वह गुटिका आज मेरे साथ नहीं है ।' । महाबल जाने की त्वरा कर रहा था और मलयासुन्दरी उसको रोकने का प्रयत्न कर रही थी। मलयासुन्दरी ने कहा—'आप यहां से कैसे जाएंगे ?' __ महाबल मलयासुन्दरी ६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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