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से जो बात प्रत्यक्ष देखी थी, वह आपसे कही थी। मुझे भी आश्चर्य हो रहा है कि कुछ ही समय में यह सब अन्यथा कैसे हो गया ?'
'तूने बाहर से सांकल तो चढ़ा दी थी ?'
'यही मेरे लिए समझ में न आने वाली बात है फिर भी एक बात की जांच कर सकते हैं ।'
'क्या अभी भी तेरे मन का संशय नहीं मिटा ?' राजा ने प्रश्न किया ।
'स्वामिन् ! आंखों देखी बात झूठी कैसे हो सकती है ?"
'आंखों देखा सच भी कभी-कभी भ्रम पैदा कर देता है । तू किस बात की जांच करने के लिए कह रही थी ?"
'महाराज ! आपने कुछ दिनों पूर्व ही राजकन्या को लक्ष्मीपुंज हार भेंटस्वरूप दिया था, इसकी तो आपको स्मृति होगी ही ?"
'हां, याद है । तू कहना क्या चाहती है ?"
'मलया को पूछें, वह हार कहां है ?' कनकावती ने कहा ।
तत्काल चंपकमाला के रूप में खड़े महाबल ने अपने गले से लक्ष्मीपुंज हार निकालते हुए कहा - 'हार तो यह रहा, अभी-अभी मलया ने मुझे पहनाया था ।' रानी कनकावती के हृदय में भारी उथल-पुथल मची। उसके पैर कांपने
लगे |
महाराजा ने भृकुटी तानते हुए कहा - 'तू तत्काल अपने कक्ष में चली जा । फिर तू कभी मेरे समक्ष ऐसी बात लेकर मत आना । तेरा यह भयंकर अपराध है, किन्तु प्रथम अपराध होने के कारण मैं तुझे क्षमा करता हूं किन्तु तेरी नीति क्या है, उसकी आज मुझे स्पष्ट प्रतीति हो गई है ।'
तत्काल चंपकमाला ने कहा - 'स्वामिनाथ ! आप कुपित न हों । मेरी बहन ने हित के लिए ही कहा होगा, पर दृष्टि-भ्रम के कारण ऐसा निर्णय हो गया है ।'
'प्रिये ! तेरी यह उदारता ही दुष्टजनों की दुष्टता को प्रोत्साहित करती
है ।'
कनकावती हताश, निराश होकर वहां से खिसक गई। महाराज भी अपने सैनिकों के साथ लौट गए ।
मलयासुन्दरी जो अब तक अवाक् थी, जिसने एक शब्द भी नहीं कहा था, वह तत्काल आगे बढ़ी और उसने द्वार के सांकल लगा दी ।
रानी कनकावती अपने कक्ष में पहुंच गई । वह किवाड़ बन्द कर गम्भीर विचार में पड़ गई । कुछ समय पूर्व घटित घटना के दृश्य एक-एक कर प्रत्यक्ष होने लगे. वह सुन्दर युवक वातायन से मेरे कक्ष में आया था. मैंने उससे सहवास की प्रार्थना की थी. वह पुनः लौटने के लिए वचनबद्ध होकर यहां से
६४ महाबल मलयासुन्दरी
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