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________________ है । मेरा सर्वस्व आपके चरणों में अर्पित है' - कहकर वह उठी और अपने गले से दिव्य लक्ष्मीपुंज हार निकालवर महाबल को पहनाते हुए बोली- 'यह लक्ष्मीपुंज हार दिव्य और शक्तिसंपन्न है "यह मैं आज आपको समर्पित करती हूं. एक कुंआरी कन्या इस प्रकार एक वरमाला ही पहना सकती है... इस दिव्यहार के मिष से मैंने आपके गले में वरमाला पहनायी है ।' मलयासुन्दरी महाबल के चरणों में नत हो गई । वह बोली- 'प्राणेश ! मन से तो मैंने आपका वरण कर लिया । अब आप गांधर्वविधि से मेरा स्वीकार करें मैं तत्काल आपके साथ चलने के लिए तैयार हूं आप मुझे सहधर्मिणी के रूप में साथ ले जाएं ।' महाबल भावभरी नजरों से मलयासुन्दरी को देखते हुए बोला- 'मलय ! यदि इस तरीके से मैं तुम्हें ले जाता हूं तो वह अनीति होगी । जैसे तुमने मेरे प्रति समर्पण किया है वैसे ही मैं तुम्हारे प्रति समर्पित होता हूं । अब मैं तुम्हारे माता-पिता की आज्ञा प्राप्त करने का उपाय सोचूंगा । तुम निश्चिन्त रहो। मैं अवश्य ही तुम्हें जीवन संगिनी बनाऊंगा ।' बाहर द्वार पर खड़ी रानी कनकावती ने ये सारी बातें सुनीं । उसका मन क्रोध से भर गया । उसने सोचा, यह नौजवान मुझे धोखा देकर यहां आया है और मलयासुन्दरी से प्रेम का नाटक रच रहा है । महाबल बोला- 'प्रिये ! अब मुझे जाने की आज्ञा दो । नहीं रुकता वह निरन्तर गतिमान रहता है ।' 'स्वामिन् ! आपको मैं आज्ञा कैसे दूं ? कैसे कहूं आप जाएं ? किन्तु आपके उत्तम विचारों का मैं स्वागत करती हूं । आप अपने कार्य में सफल हों और इस दासी का मस्तिष्क आपके हृदय में विश्राम करे, यही मेरी इच्छा है ।' इसी समय कक्ष के कपाटों पर बाहर से किसी ने सांकल लगा दी । महाबल और राजकन्या दोनों चौंके । समय कभी उसी समय बाहर खड़ी रानी कनकावती का अट्टहास सुनाई दिया। वह बोली- ' कपटी महाबल ! यदि तेरा यह कपटजाल मुझे ज्ञात हो जाता तो मैं तेरे पर कभी विश्वास नहीं करती अब तुम भी मजा चख लेना.. फिर अट्टहास कर रानी धम-धम करती हुई चली गई । मलयासुन्दरी की छाती धड़कने लगी- 'अरे, यह तो मेरी अपर मां कनकावती है किन्तु यह आपसे परिचित कब, कैसे हुई ? आपको कपटी कैसे कहा ?" 'प्रिये ! घबराने का कोई कारण नहीं है । तुमने मुझसे पूछा था कि मैं यहां कैसे पहुंचा, उस समय मैंने उत्तर नहीं दिया था। अब सुनो। मैंने तुम्हारे कक्ष के भरोसे तुम्हारी अपरमाता के कक्ष में प्रवेश कर दिया। मुझे देखकर वह मुग्ध ६० महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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