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'मुझे विश्वास हो गया कि यह स्नेह वर्तमान का नहीं, जन्म-जन्मान्तर का
है ।'
मलयासुन्दरी ने कहा- 'मैंने आपको वातायन से देखा । मेरा हृदय स्नेह से भर गया । आपसे मिलने की अकुलाहट से मन भारी हो गया । हृदय में समर्पण का भाव जागा मैं अन्दर आयी । एक ताड़पत्र पर हृदय के भाव अंकित किए और भावना के फूल आपके चरणों में चढ़ा दिए। प्रियतम ! नारी एक ही पुरुष के प्रति अपना समर्पण करती है यह एक बार ही होता है । मेरी प्रार्थना है कि आप मुझे चरणों की दासी मानें
।'
'ओह, प्रिये ! मैं आज धन्य हो गया मैं जो जानना चाहता था वह सब तुम्हारे समर्पण भाव से जान गया हूं ।'
द्वार के पास कान लगाकर खड़ी हुई रानी कनकावती सारी बातें ध्यान से सुन रही थी । उसने सोचा- यह युवक राजकुमारी का प्रेमी ही है । यह मुझे मिथ्या वचन देकर यहां आ गया है।
महाबल ने अभी अपना नाम नहीं बताया था । मलयासुन्दरी ने पूछा- .. 'आपका शुभ नाम ?'
बीच में ही युवराज बोला - 'महाबल । '
'प्रियतम, एक बात समझ में नहीं आयी ।' 'वह क्या ?"
'आपने मेरा रूप देखकर यहां आने का निश्चय किया। यह बात पूरी समझ में नहीं आयी । क्या आपने मुझे स्वप्न में देखा था ?'
'नहीं' एक कलाकार ने तुम्हारा चित्रांकन दिखाया था।' कहकर महाबल ने सुशर्मा की सारी बात बताई ।
'तब तो वह महान् कलाकार ही अपने मिलन का निमित्त बना है । मैं उसको धन्यवाद देती हूं ।'
महाबल ने कहा--' राजकुमारी ! अब मुझे यहां से शीघ्र चले जाना है, क्योंकि कल प्रातःकाल हमें यहां से प्रस्थान कर पृथ्वीस्थानपुर जाना होगा ।'
'प्रियवर ! मैं नहीं जाने दूंगी। आपके दर्शनों के बिना मेरा हृदय चूरचूर हो जाएगा । आप यहीं रहें ।'
'प्रिये ! मैं अभी यहां रुक नहीं सकता । मुझे यहां से जाना ही होगा ।' मलयासुन्दरी मौन रही । उसका हृदय भर आया । उसने सोचा, आज का संयोग आज ही वियोग में परिणत हो जाएगा ?
महाबल आसन से उठा ।
मलयासुन्दरी ने कहा- 'शीघ्रता न करें। मुझे एक बात कहनी है । मैंनें अपने मन से आपका वरण कर लिया है । आर्य कन्या एक ही बार वरण करती
महाबल मलयासुन्दरी ५६
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