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आश्वस्त हुआ । वह बोली- 'कुमार ! मैं आपका स्वागत करती हूं - यह कहकर वह तत्काल दीपक के पास गई और उस पर पड़े जाली के आवरण को हटाकर दूर रख दिया । तत्काल सारा कक्ष प्रकाशमय हो गया ।
महाबल ने देखा कि वह किसी राजकन्या के समक्ष नहीं, परन्तु प्रकाश की देवी के सामने खड़ा है । वह अवाक् खड़ा रहा ।
मलयासुन्दरी बोली-- आप इस आसन पर बैठें मेरा मन कह रहा था कि आप अवश्य आएंगे और इसीलिए मैं आपकी प्रतीक्षा में वातायन पर खड़ी थी ।'
महाबल कुछ कहना चाहता था, परन्तु राजकन्या की निर्भयता को देख वह अवाक् बना रहा``"वह केवल एकटक सुन्दरी को देख रहा था ।
मलयासुन्दरी कक्ष के द्वार के पास गई और धीरे से किवाड़ों में सांकल लगा दी । उसने बाहर झांककर नहीं देखा, अन्यथा वहां खड़ी हुई अपनी सौतेली मां को वह अवश्य देख लेती ।
ज्योंही महाबल मलया के कक्ष में प्रविष्ट हुआ और कपाट बन्द किए, त्योंही सोपान श्रेणी में छिपकर खड़ी हुई रानी कनकावती मलयासुन्दरी के कक्ष के द्वार पर आयी और कक्ष में कैसी बातें हो रही हैं, सुनने के लिए द्वार पर कान लगाकर खड़ी हो गई ।
मलयासुन्दरी का हृदय हर्ष से उछल रहा था । उसमें आशा की ऊर्मियां नाच रही थीं। वह आगंतुक का स्वागत कर बहुत कुछ कहना चाहती थी,
पर...
युवराज महाबल ने कहा- 'राजकुमारी ! तुमको देखने के पश्चात् मुझे ऐसा लग रहा था कि जन्म-जन्मान्तरों का स्नेह-बंधन जागृत हुआ है। तुमने अपनी बात श्लोकों में कह दी थी। मैं असमंजस में था कि मैं अपना परिचय तुम तक कैसे पहुंचाऊं ? कोई दासी भी परिचित नहीं थी और मेरा अन्तःपुर में आना खतरे से खाली नहीं था ।'
'मेरा प्रेम आपको खींच लाया है ।' राजकुमारी ने कहा । 'यही बात है, पर एक बात समझ में नहीं आ रही है ।' 'पहले आप अपना परिचय दें ।' मृदुस्वर में मलया ने कहा ।
'ओह ! मैं तो भूल ही गया । अपना परिचय देने के लिए ही तो यहां आया | पृथ्वीस्थानपुर के महाराजा सूरपाल मेरे पिताश्री हैं "महारानी पद्मावती मेरी मातुश्री हैं तुम्हारा स्वरूप देखकर तुमको पाने की इच्छा उभरी थी, किन्तु साक्षात्कार के बिना निर्णय करना उचित नहीं समझा । मंत्रियों के साथ यहां आया और तुम्हारे दर्शन हुए..
.."
' और '
५८ महाबल मलयासुन्दरी
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