________________
महाबल ने कहा-'देवी ! क्षमा करें ! मैं प्रयोजनवश यहां आया था, पर भूल से आपके खण्ड में आ गया।'
'बहुत बार भूल भी जीवन का अविस्मरणीय क्षण बन जाती है। सामने दृष्टि करो।' _ 'देवी...!' कहकर महाबल ने झटके से हाथ छुड़ाया।
'युक्क ! मैं तुम्हारे पर मुग्ध बनी हूं। क्या मेरे में सौन्दर्य नहीं है !' महाबल कनकावती के कामातुर नयनों को देखता रहा । वह मौन रहा । बोला नहीं।
रानी ने कहा--'बोलो, क्या विचार किया है ?'
महाबल ने सोचा--अब मुझे युक्ति से काम लेना है। यदि मैं इस मददस्त नारी का सीधा अपमान करता हूं तो सम्भव है यह चिल्लाकर मेरा अनिष्ट सम्पादित कर दे । यह राजभवन है 'भवन के बाहर पहरेदार हैं, अन्यान्य कक्षों में दास-दासी हैं। 'मेरी क्या दशा होगी तब ? ।
सोच-समझकर उसने गम्भीर स्वर में कहा-'देवी ! आपके रूप में आकर्षण नहीं है, यह मैं नहीं समझता।'
'तो?'
'मैं जिस प्रयोजन से आया हूं, वह प्रयोजन जब तक पूरा नहीं हो जाता तब तक मेरा मन स्वस्थ नहीं रह सकता। ''आप जानती हैं कि अस्वस्थ मन से कैसा आनन्द ...'
'यहां आने का प्रयोजन ?' 'मैं राजकन्या को एक सन्देश देने आया हूं।' 'किसे ? मलया को?'
'हां, देवी! उसे सन्देश देना है, और जब तक वह सन्देश न दे दूं, तब तक मेरा मन स्वस्थ नहीं हो सकता।'
'परन्तु सन्देश किसका ?'
'देवी ! एक दूत यह बात कैसे बता सकता है ! हां, उसे सन्देश देने के पश्चात् मैं आपको सारी बात बता दूंगा।'
रानी विचारमग्न हो गई । वह महाबल के वाग्जाल में फंस गई । वह मदु स्वर में बोली-'अच्छा, तो तुम मेरे पीछे-पीछे चलो। मैं तुम्हें मलया के कक्ष तक ले चलती हूं। वह ऊपर के खण्ड में रहती है।'
'रास्ते में कोई...' _ 'रास्ते में कोई नहीं मिलेगा । महाराज और महारानी दूसरे खण्ड में रहते हैं, पर तुम्हें..." 'आज्ञा दो, देवी !
महाबल मलयासुन्दरी ५५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org