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________________ उसका यौवन और शरीर मद भरे थे । एक तो वह राजरानी, दूसरा उत्तम रूप, तीसरा मदमाता यौवन और चौथा अतृप्त मन... वातायन में छिपे हुए महाबल ने कक्ष में जाने के लिए चरण बढ़ाए। उसने कक्ष के द्वार पर रुककर कक्ष के चारों ओर देखा । उस कक्ष में कोई दासी नहीं थी, केवल रानी एक पलंग पर सो रही थी क्या यही मलया है ? प्रकाश पूरे कक्ष को नहला रहा था । पलंग पर सीधा प्रकाश न पड़े, इसलिए कुछ आवरण रखा हुआ था । इसलिए पलंग पर सोने वाले की आकृति पूर्ण रूप से नहीं दीख रही थी । पलंग पर से लटकते हुए उत्तरीय के कोण से उसका रंग गुलाबी है, ऐसा अनुमान लग रहा था । आज मलया ने भी गुलाबी उत्तरीय धारण कर रखा था । रानी कनकावती स्पष्ट रूप से इस युवक को देख रही थी । सुन्दर आकृति, तेजस्वी नयन, बलिष्ठ काया कौन होगा यह ? कोई गांधर्व तो नहीं आ गया है ? कोई आकाशगामी देव तो नहीं आ गया है ? महाबल ने पूर्ण धृति के साथ कक्ष में प्रवेश किया। रानी कनकावती ने उसे पास से देखा । उसको देखते ही उसकी अतृप्त वासना जाग उठी । ओह ! ऐसा सुन्दर युवक ! ऐसी मीठी और शान्त रात्रि ! यह तो कामदेव से भी सुन्दर है । · महाबल डरता हुआ दो कदम आगे बढ़ा और तत्काल रानी कनकावती अपनी शय्या से उठी और मुग्ध नयनों से उसकी ओर देखती हुई बोली-'आओ, मेरी आशा के साथी, आओ । यौवन यौवन का अभिनंदन करता है ।' महाबल चौंका । वह वहीं खड़ा रह गया । उसने देखा कि यह सुन्दरी "राजा की रानी तो नहीं है ? मलया इस स्त्री का शरीर बता रहा है कि मलया नहीं है ।" यह कोई अन्य नारी है की कोई सखी तो नहीं है ? नहीं नहीं यह विवाहिता है । युवराज को विचारमग्न देखकर रानी कनकावती पलंग से नीचे उतरी । उसके केंचुली बंध से उत्तरीय खिसक गया । उसके उन्नत उरोज कामकुम्भ के सदृश लग रहे थे । रानी बोली- 'प्रियतम ! आशंकित मत हो । मैं तुम्हारे पर अपना यौवन न्योछावर करती हूं। मैं हृदय से भावभीना स्वागत करती हूं । भय को त्याग कर आओ, बैठो। यहां प्रकृति की नीरवता और मस्ती है । आओ, आगे आओ।' युवराज असमंजस में पड़ गया। वह विचारमग्न हो खड़ा रहा । कनकावती और निकट आयी और महाबल का हाथ पकड़ते हुए बोली'मैं सर्वस्व तुम्हारे चरणों में अर्पित करती हूं। आओ और मेरे हृदय का मधुर संगीत सुनकर तृप्ति का अनुभव करो ।' ५४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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