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१०. नयनों की टकराहट
पूरे चार दिन बीत गए परन्तु एक भी अवसर ऐसा नहीं मिला जिसमें युवराज मलयासुन्दरी को देख पाते। इससे युवराज को अपना गुप्तवेश शल्य की भांति चुभने लगा। उसने सोचा- यदि मैं यहां युवराज के रूप में आता तो संभव है राजप्रासाद में रहते हुए मलया को देख पाता, मिल पाता, अब क्या किया जाए?
प्रतिष्ठानपुर की ओर प्रस्थान करने का समय आ गया। मंत्रियों ने युवराज से प्रस्थान की बात कही। युवराज प्रस्थान का नाम सुनते ही खिन्न हो गया। उसको उदास देखकर एक मंत्री ने विचारमग्नता का कारण पूछा। युवराज ने कहा-'अभी तक तो मैंने नगर-भ्रमण किया ही नहीं है। यहां पहली बार आया हूं। आप सब चले जाएं। मैं पांच-सात दिन एक पांथशाला में रहकर घर लौट आऊंगा।'
मंत्री ने कहा---'यह कभी संभव नहीं है। हम आपको एक क्षण के लिए भी छोड़कर नहीं जा सकते। आपको हमारे साथ चलना होगा या फिर हम यहीं रुकेंगे।' ___ युवराज ने कहा-'कोई बात नहीं है । फिर कभी आऊंगा तो यहां निश्चिन्तता से नगर-दर्शन करूंगा। हमें कल यहां से प्रस्थान करना है।'
मध्याह्न के समय युवराज एक सेवक को साथ लेकर राजभवन की वाटिका में घूमने गया। उसके मन में एक ही आशा थी कि किसी न किसी वातायन में मलयासुन्दरी को देख लूं और चित्रांकन की यथार्थता को जान लूं । ___महाबल उपवन में इधर-उधर घूमने लगा। जितने कोणों से वातायन को देख सकता था, उसने वातायनों को देखा । पर आशा फली नहीं। वह निराशा के वात्याचक्र में फंस गया।
महाबल को याद आया कि उसके पास रूपपरावर्तिनी गुटिका है। उसने देवी चंपकमाला को बराबर देखा है 'देवी चंपकमाला महाराज वीरधवल की प्रिय रानी और मलया की माता है "राज दरबार में उस दिन उसे देखा
महाबल मलयासुन्दरी ४७
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