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युवराज महाबल ने मस्तक नमा कर प्रणाम किया। महाराज ने आशीर्वाद दिया । कुछ समय रुककर महाराज भीतर चले गए और तब महाबल आदि सभी अपने निवास स्थान अतिथिगृह में आ गए।
वहां पहुंचने के पश्चात् युवराज ने मंत्री से कहा---'मैं नगर की शोभा देखने जा रहा हूं, रात्रि के प्रथम प्रहर बीतते-बीतते लौट आऊंगा।'
एक मंत्री ने कहा- 'युवराजश्री!' हंसते हुए महाबल ने बीच में ही कहा---'भूल गए ?'
'ओह श्रीमान्, प्रवास का श्रम अभी मुक्त नहीं हुआ है ''आप कल नगर की शोभा देखने जाएं तो अच्छा है।'
'युवक कभी श्रम से नहीं कतराता । आप सब निश्चिन्त रहें।' युवराज ने कहा और एक सेवक को साथ ले चन्द्रावती नगरी की ओर चल पड़ा।
महाबल मलयासुन्दरी को देखने के लिए आकुल-व्याकुल हो रहा था । वह राजभवन के वातायन की ओर देखते हुए मुख्य द्वार पर आया । वातायन शून्य थे । केवल भीतर में जल रहे रत्नदीप की ज्योति का मंद प्रकाश झरोखे की जाली से बाहर आ रहा था। - महाबल वातायन में किसी को न देखकर निराश होकर अतिथिगृह की ओर लौट रहा था। उसने एक बार पुनः उस वातायन की ओर देखा; किन्तु मन की प्यास बुझी नहीं।
महाबल ने सोचा-इतने विशाल भवन में राजकन्या किस खंड में है, कैसे जाना जा सकता है ? इन्हीं विचारों की उधेड़बुन में वह अपने निवास स्थान पर आ पहुंचा।
मंत्री ने पूछा-'आप इतने शीघ्र कैसे पधार गए ?'
'मैं आधे रास्ते से ही लौट आया हूं। कल बाजार देखने जाऊंगा।' युवराज ने कहा।
दूसरे दिन ।
युवराज स्नान आदि से निवृत्त होकर बैठा था। मंत्री भी तैयार हो चुके थे। सभी उपहार को लेकर महाराज वीरधवल की सभा में गए । उपहार भेंट कर उन्होंने अपने महाराज का संदेश पढ़ सुनाया। वीरधवल ने अत्यन्त प्रसन्नता व्यक्त की।
पूरा दिन इसी में बीत गया।
महाबल का मन मलयासुन्दरी की आतुरता में उद्विग्न हो रहा था। दूसरे सारे आतिथ्य उसे फीके लग रहे थे। उसने सोचा--राजकन्या के दर्शन कैसे होंगे? आर्य सुशर्मा ने जो चित्रांकन किया है; क्या वह सही है ? क्या कलाकार ने उस छवि को उभारकर तो नहीं दिखाया है ? उसके ये विकल्प हृदय में तूफान
महाबल मलयासुन्दरी ४५
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