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________________ दोनों हाथ मुट्ठी में लेकर दबाए । दोनों अभिवादनपूर्वक अपने-अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े । युवराज अपने अश्व पर राजभवन में आ गया । युवराज के हृदय पर मलयासुन्दरी की छवि अंकित हो चुकी थी । रात्रि के समय भी आर्य सुशर्मा द्वारा प्राप्त मलयासुन्दरी के चित्र को देख-देखकर युवराज उद्वेलित हो उठता था। युवराज के मन में यह निश्चय हो चुका था कि मलयासुन्दरी एक कुलीन राजकन्या है रूप और लावण्य में बेजोड़ है " आकृति से गुणवती होने का साक्ष्य है नयन निर्मल और तेजस्वी हैं । इन सभी प्रकार के विकल्पों में उसकी रातें बिना नींद के ही बीत जाती थीं । यौवन को जैसे यौवन प्रिय होता है, वैसे ही संस्कार को संस्कार प्रिय होते हैं । इसीलिए महाबल चंद्रावती नगरी में जाकर राजकन्या मलयासुन्दरी की प्रत्यक्षतः देखना चाहता था । उसने सोचा था, यदि प्रसंग मिला तो स्वयं मलया से मिलकर उसके हृदय के भाव जान लूंगा । सात दिन बीत गए । दो मंत्रियों और अनेक सुभटों तथा परिचारकों को साथ ले युवराज महाबल ने चन्द्रावती नगरी की ओर प्रस्थान किया । प्रस्थान करते समय उसने माता-पिता से यह आदेश प्राप्त कर लिया था कि वह वहां गुप्तवेश में रहेगा, क्योंकि यदि महाराज वीरधवल को ज्ञात हो जाए कि युवराज आए हैं तो आतिथ्य आतिथ्य में ही उसके दिन पूरे हो जाएंगे और वह एक प्रतिबद्धता में आ जाएगा । इसलिए युवराज ने अपना वेश बदला और गुप्तवेश में प्रस्थान कर दिया । उसने एक सेठ का वेश बना लिया था और साथ वाले मंत्रियों तथा अन्यान्य कर्मकरों को यह आदेश दिया था कि कोई भी उसका मूल परिचय न दे । चार दिन के प्रवास के पश्चात् वे चन्द्रावती नगरी में पहुंचे। वीरधवल ने आगमन की बात सुनी। उन्होंने अपने मन्त्रियों को भेज आगन्तुक अतिथियों hat अतिथिगृह में रहने का निर्देश दिया। स्नान आदि से निवृत्त होकर सभी महाराज वीरधवल से मिलने राजभवन में गए। महाराज वीरधवल ने उनका संस्कार किया, कुशल-क्षेम पूछा और अधिक से अधिक दिन रुकने का अनुरोध किया । युवराज महाबल सामंतपुत्र के वेश में था, किन्तु उसके नयनों का तेज और आकृति का प्रभाव छिपा नहीं रह सका। महाराज वीरधवल बार-बार उसकी ओर देख रहे थे । चतुर मंत्री ने कहा, 'ये हमारे सामन्त के पुत्र हैं शिक्षण प्राप्त करने साथ आए हैं ।' ४४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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