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________________ नौ मास नौ दिन पूरे होने पर रानी ने पहले पुत्र का प्रसव किया और तत्काल बाद ही पुत्री का प्रसव किया । राजा को दो सन्तानों की प्राप्ति हो गई । मलयादेवी की आराधना से यह वृक्ष पुष्पित और फलित हुआ, इसलिए पुत्र का नाम रखा मलयकुमार और पुत्री का नामकरण किया मलयासुन्दरी । पुत्रोत्पत्ति की बात सुनकर सारा राजपरिवार आनन्दित और उल्लसित हुआ । पोरजन प्रसन्न और हर्षित हुए। परन्तु 'रानी कनकावती का हृदय ईर्ष्या की आग से भड़क उठा था। विवाह के बाद ही बह समझ चुकी थी कि राजा का पूरा झुकाव चंपकमाला की ओर है। उसके साथ विवाहकरण तो केवल सन्तान की प्राप्ति के लिए हुआ है। प्रथम कुछ वर्षों तक वह एक आशा को संजोकर जी रही थी कि यदि सन्तान हो जाएगी तो वह चंपक माला के वर्चस्व को कुचल कर नष्ट-भ्रष्ट कर देगी। वह पटरानी बनकर राजा की प्रिया हो जाएगी और तब चंपकमाला एक दासी के अतिरिक्त कुछ नहीं रह पाएगी। . परन्तु ऐसा नहीं हुआ और चंपकमाला के प्रति उभरी हुई ईर्ष्या कनकावती के हृदय में जोर से भभक उठी। रानी कनकावती सुन्दर थी; चतुर थी और हावभाव करने में निपुण थी। इतना होने पर भी वह राजा को चंपकमाला से अलग नहीं कर सकी। महाराज वीरधवल ने रानी कनकावती के प्रति कभी रोष या विराग प्रदर्शित नहीं किया। वे रानी कनकावती की सारी इच्छाएं पूरी करने का प्रयत्न करते, पर.. रानी कनकावती मन-ही-मन दुःखी हो रही थी। वह बाहर से प्रसन्न रहने का दिखावा करती और भीतर-ही-भीतर जल-भुनकर राख हो जाती थी। उसकी प्रिय परिचारिका थी सोमा । उसके समक्ष रानी यदाकदा अपना दुःख-दर्द कहती और वह सोमा रानी को आश्वासन देती। दोनों बालक बढ़ने लगे। रानी कनकवती वन्ध्यत्व दोष से ग्रसित है, यह बात यदि वैद्य नहीं कहते तो वह इन दोनों बालकों को येन-केन-प्रकारेण मरवा देती। किन्तु वह लाचार थी। चंपकमाला अपने दोनों बच्चों को बहुत सावधानीपूर्वक रखती थी। __ दोनों बालक बड़े हुए। कलाचार्य के पास शिक्षा के लिए गए । कलाचार्य ने उन्हें उत्तम शिक्षण से परिपूर्ण किया। और आज... चौदह वर्ष पूरे हो गए। दोनों बालक पन्द्रहवें वर्ष में प्रवेश कर गए।.. नर्तकियों का नृत्य पूरा हुआ । इतने में ही दक्षिण भारत की कलारानी महाबल मलयासुन्दरी ४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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