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________________ मुटिका की डिबिया युवराज महाबल के हाथ में सौंप दी।' युवराज बोला-'महात्मन् ! आपकी सिद्धि का प्रयोग मैं कैसे कर सकता हूं? और ऐसी महान् वस्तु मेरे लिए क्या उपयोगी हो सकती है ? आपकी ममता ही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ आशीर्वाद है।' युवराज ने गुटिका की डिबिया आचार्य के हाथ में दे दी। आचार्य ने युवराज के मस्तक पर हाथ रखते हुए कहा--'वत्स ! तुम इसे विनिमय मत समझना। तुमने मुझे सहयोग दिया, इसलिए मैं यह नहीं दे रहा हूं। यह मात्र एक वैज्ञानिक साधु का प्रसाद है। प्रसाद सदा स्वीकार्य होता है। वह कभी नकारा नहीं जा सकता । तुम्हारा जीवन बहुत लम्बा है। यह वस्तु तुम्हारे लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी। प्रजा के सुख-दुःख का लेखा-जोखा करने में यह रूपपरावर्तिनी गुटिका बहुत सहयोग करेगी। जीवन आपदाओं का मंदिर है। विपत्ति के बिना शक्ति की कसौटी नहीं होती। ऐसी स्थिति में कभी-कभार यह गुटिका तुम्हारे लिए बहुत बड़ा आशीर्वाद बन सकती है। इसके स्वीकार में कोई दोष नहीं है।' ___ आचार्य पद्मसागर के आग्रहभरे कथन के समक्ष युवराज नत हो गया और उसने गुटिका स्वीकार कर ली। उसके बाद आचार्य ने युवराज को और भी अनेक तांत्रिक प्रयोग बताए, देए । दूसरे दिन दोनों ने पृथ्वीस्थानपुर की ओर प्रस्थान कर दिया। दोनों के अश्व तेजस्वी और आकीर्ण थे। मार्ग में अनेक दर्शनीय और पवित्र स्थल आए। आचार्य पद्मसागर उन स्थलों का परिचय युवराज को देते हुए बढ़ रहे थे। वे यथासमय पृथ्वीस्थानपुर पहुंच गए। एकाकी पुत्र महाबल को सुरक्षित आया देखकर राजा-रानी अत्यन्त प्रसन्न हुए। सभी मंत्री और राजपुरुष हर्षित हुए। आचार्य पद्मसागर ने महाराज सुरपाल के समक्ष अपनी उपलब्धियों का ब्यौरा रखा और युवराज की धृति और शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की। आचार्य पद्मसागर चार दिन पृथ्वीस्थानपुर में रुके और तदनन्तर वे राजपरिवार को आशीर्वाद देकर यात्रा के लिए निकल पड़े। उसी दिन संध्या से पूर्व आर्य सुशर्मा ने नगरी में प्रवेश किया। उसने एक धर्मशाला में रहने का निश्चय किया था। किन्तु साथ में आए हुए राज-सैनिक ने राजभवन में जाने का आग्रह किया क्योंकि महाराज वीरधवल का यही संकेत था। - दोनों अपने अश्वों को ले राजभवन में गए। राजभवन के रक्षकों ने दोनों का सत्कार किया और महाराज वीरधवल का पत्र महाराज सुरपाल तक पहुंचा दिया। महाराज ने तत्काल दोनों को राजभवन के अतिथिगृह में ठहराया और महाबल मलयासुन्दरी ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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