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________________ 'यह नाम तो मैंने कभी सुना ही नहीं। यह क्या वस्तु है ?' आचार्य पद्मसागर ने महाबल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा - 'वत्स ! भारत के प्राचीन वैज्ञानिकों ने एक महाग्रन्थ रचा था । उसका नाम है 'विमानशास्त्र' । इस ग्रन्थ में आकाश में उड़ने वाले छोटे-बड़े अनेक वाहनों के निर्माण का पूरा विवरण प्राप्त था । उसमें तीन प्रकार के विमानों का वर्णन है— यांत्रिक विमान, तांत्रिक विमान और योग- प्रभावक विमान । इनके अतिरिक्त अन्यान्य विमानों की निर्माण-विधि भी उस महान् ग्रन्थ में उल्लिखित थी । उस ग्रन्थ में पवन - पादुकाओं के सहारे कोई भी व्यक्ति सहज रूप से आकाशचारी हो सकता है, व्योमगामी हो सकता है । मेरे गुरु से मुझे योगप्रभावी विमान - पादुका बनाने की विधि ज्ञात हुई थी, किन्तु आज तक मैं इस विधि को काम में नहीं ले सका और पादुका निर्माण नहीं कर सका ।' महाबल ने पूछा- 'आपके पास वह महान् ग्रन्थ है ?" 'नहीं, वत्स ! पूर्वकाल में हिमगिरि के उस ओर रहने वाले राक्षसों के हाथ में उस ग्रन्थ का एक भाग आ गया था । उन राक्षसों ने उस ग्रन्थ में वर्णित विधि से अनेक विमान बनाए और जनता को भयाक्रान्त कर डाला । इसलिए त्रिविष्टप के महाराजा ने चीन के उन राक्षसों के साथ भयंकर युद्ध लड़ा और येन-केन-प्रकारेण उस विमानशास्त्र को नष्ट कर डाला । उसके कुछ खण्ड इधरउधर आज भी उपलब्ध होते हैं और पूरा विमानशास्त्र त्रिविष्टप के भंडार में आज भी सुरक्षित पड़ा है ।' महाबल आश्चर्यभरी दृष्टि से आचार्य की ओर देखता रहा । थोड़े क्षणों के मौन के पश्चात् आचार्य ने कहा - ' वत्स ! मैं तुम्हारे शान्त, निर्भीक और उदात्त स्वभाव से अत्यन्त प्रभावित हुआ हूं । मैं आज तुम्हें रूपपरावर्तिनी गुटिका दे रहा हूं। इसका एक रहस्य है, वह भी मैं तुम्हें बता देता हूं' — कहकर आचार्य पद्मसागर ने रूपपरावर्तनी गुटिका को निकाला और एक छोटी डिबिया में रखते हुए कहा - 'जिस प्राणी के रूप में तुम बदलना चाहो, उस प्राणी के रूप की मन में अवधारणा कर इस गुटिका को मुंह में रख लेना । तत्काल तुम उस रूप में बदल जाओगे पश्चात् गुटिका को मुंह से निकाल लेने पर भी तुम मूल रूप में नहीं आ पाओगे इसलिए कच्ची और खट्टी केरी खाने से मूल रूप को पा लोगे ।' • महाबल ने पूछा - ' खट्टी केरी न खायी जाए तो क्या मूल रूप प्राप्त नहीं होता ?" 'प्राप्त हो सकता है । किन्तु छह मास तक वैसा नहीं हो सकता । इस गुटिका के अणुओं का प्रभाव छह महीनों तक रहता है । कच्ची केरी खा लेने से वह प्रभाव तत्काल नष्ट हो जाता है।' यह कहते हुए आचार्य पद्मसागर ने ३४ महाबल मलयासुन्दरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003181
Book TitleMahabal Malayasundari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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